SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 71
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समयसार गाथा ६ पाँचवीं गाथा में एकत्व - विभक्त भगवान आत्मा के दिखाने की प्रतिज्ञा की गई थी । अतः अब इस छठवीं गाथा में उस एकत्व - विभक्त भगवान आत्मा का स्वरूप बताते हैं; और यह भी बताते हैं कि उसे शुद्ध किसप्रकार कहा जाता है। 'वह शुद्धात्मा कौन है ? ' इस प्रश्न के उत्तरस्वरूप ही इस गाथा का उदय हुआ है 1 — दु ण वि होदि अप्पमत्तो ण पमत्तो जाणगो द जो भावो । एवं भणंति सुद्धं णादो जो सो दु सो चेव ॥ ६ ॥ ( हरिगीत ) न अप्रमत्त है न प्रमत्त है बस एक ज्ञायकभाव है । इस भाँति कहते शुद्ध पर जो ज्ञात वह तो वही है ॥ ६ ॥ जो एक ज्ञायकभाव है, वह अप्रमत्त भी नहीं है और प्रमत्त भी नहीं है; इसप्रकार उसे शुद्ध कहते हैं और जो ज्ञायकरूप से ज्ञात हुआ, वह तो वही है; अन्य कोई नहीं । आचार्य जयसेन की टीका में इस गाथा में पाठ भेद पाया जाता है । 'सुद्धं' के स्थान पर 'सुद्धा' शब्द है और 'णादो' के स्थान पर 'णादा' शब्द है । इसप्रकार उनके अनुसार इस गाथा का अर्थ इसप्रकार होता है - — " जो एक ज्ञायक भावरूप शुद्धात्मा है, वह अप्रमत्त भी नहीं है और प्रमत्त भी नहीं है ऐसा शुद्धनय के जाननेवाले महापुरुष कहते हैं । उसे चाहे ज्ञायक कहो या शुद्ध कहो एक ही बात है; बस वह तो वही है, ज्ञाता ही है । " यहाँ ही यह भी कहा गया है कि 'प्रमत्त' शब्द से आरंभिक छह गुणस्थान ग्रहण करना और 'अप्रमत्त' शब्द से अन्त के आठ गुणस्थान
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy