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________________ समयसार अनुशीलन 62 अनुभव से ही प्रमाण करना है। पुराणादि और त्रिलोकादि की बात को तो अनुभव से प्रमाण करना संभव है ही नहीं; आत्मा असंख्यप्रदेशी है, अनन्तगुण वाला है - यह जानना भी अनुभव से संभव नहीं है; क्योंकि अनुभव में प्रदेश प्रत्यक्ष नहीं होते, अनन्तगुण भी गिनने में नहीं आते । अत: इन्हें तो आगम प्रमाण के आधार पर स्वीकार करना ही यथेष्ट है, पर्याप्त है; पर आत्मा का अनुभव तो किया ही जा सकता है; अत: आचार्यदेव का यह आदेश उचित ही है कि तुम इसे अनुभव से प्रमाण करना, अनुभव करके प्रमाण करना, इसका अनुभव करना; तुम्हारा कल्याण इसी में है। इसप्रकार इस गाथा में शुद्धात्मा के प्रतिपादन की प्रतिज्ञा करके अब आचार्यदेव मूल विषयवस्तु के प्रतिपादन में संलग्न होते हैं। देख ! देख !! देख !!! मेरी ओर आँखें फाड़-फाड़ कर क्या देख रहा है? अपनी ओर देख! एक बार इसी जिज्ञासा से अपनी ओर देख!! जानने लायक, देखने लायक एकमात्र आत्मा ही है, अपना आत्मा ही है। ___ यह आत्मा शब्दों में नहीं समझाया जा सकता, इसे वाणी से नहीं बताया जा सकता। यह शब्दजाल और वाकविलास से परे है। यह मात्र जानने की वस्तु है, अनुभवगम्य है। यह अनुभवगम्य आत्मवस्तु ज्ञान का घनपिण्ड और आनन्द का कन्द है। अत: समस्त परपदार्थों, उनके भावों एवं अपनी आत्मा में उठनेवाले विकारी-अविकारी भावों से भी दृष्टि हटाकर एक बार अन्तर में झाँक! अन्तर में देख, अन्तर में ही देख! देख!! देख!!! - तीर्थंकर महावीर और उनका सर्वोदय तीर्थ, पृष्ठ ६४
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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