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________________ समयसार अनुशीलन 228 दिखाई देता है; तथापि जब कोई आत्मा भेदज्ञान की प्रवीणता से इन सबमें 'जो यह अनुभूति है, वही मैं हूँ' – यह जान लेता है और उसे यह प्रतीति भी आ जाती है, श्रद्धान भी हो जाता है; तब भगवान आत्मा को अन्यभावों से भिन्न जान लिए जान से, उसमें निशंक स्थिर हो जानेरूप आचरण का उदय होता है। इसप्रकार यह आत्मा अपने को साधता है, अपनी साधना करता है। आत्मा की साधना की यही विधि है और साध्य की सिद्धि की उपपत्ति भी इसीप्रकार होती है। ___ तात्पर्य यह है कि परपदार्थों के साथ-साथ अपना आत्मा भी अपनी विकारी-अविकारी पर्यायों सहित प्रतिसमय हमारे ज्ञान का ज्ञेय बनता रहता है, जैसाकि टीका में स्पष्टरूप से उल्लेख है कि अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा आबाल-गोपाल सबके अनुभव में सदा स्वयं आ रहा है। प्रश्न - यदि यह बात सत्य है कि अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा सदा ही आबाल-गोपाल के अनुभव में आ रहा है तो फिर सभी को सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र भी होना चाहिए; क्योंकि आत्मानुभवी सम्यग्दृष्टि सम्यग्ज्ञानी होते ही है और उनके अनन्तानुबंधी कषाय के अभाव में होनेवाली चारित्र गुण की निर्मलता भी रहती ही है। उत्तर - इसी प्रश्न का उत्तर टीका के तीसरे पैरे में दिया गया है। यद्यपि अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा आबाल-गोपाल सभी के अनुभव में सदा आ रहा है, तथापि परपदार्थों में अनादिकालीन एकत्वबुद्धि के कारण अज्ञानीजनों को 'जो यह अनुभूति है, वही मैं हूँ' - ऐसा आत्मज्ञान उदित नहीं होता। इस आत्मज्ञान के अभाव में 'अज्ञात का श्रद्धान गधे के सींग के समान है' - इस सिद्धान्त के अनुसार आत्मश्रद्धान भी उदित नहीं होता और इसीकारण आत्माचरण भी नहीं होता है। इसप्रकार उन्हें आत्मोपलब्धि नहीं हो पाती है।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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