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________________ 229 गाथा १७-१८ ध्यान रहे यहाँ अनुभूति' शब्द का प्रयोग निर्मलपर्याय के अर्थ में न होकर त्रिकाली-ध्रुव के अर्थ में हुआ है। अनुभूतिस्वरूप आत्मा माने त्रिकालीध्रुव ज्ञानानन्दस्वभावी निज भगवान आत्मा। यद्यपि अन्य पदार्थों एवं अपने विकारी-अविकारी भावों के साथ यह अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा भी सभी ज्ञानी-अज्ञानीजनों को सदा अनुभव में आता रहता है; तथापि भेदज्ञान के अभाव में अज्ञानीजन उसे पहिचान नहीं पाते, जान नहीं पाते; इसकारण उसमें जम भी नहीं पाते, रम भी नहीं पाते; किन्तु ज्ञानीजन भेदज्ञान के बल से उसे परपदार्थों एवं अपने विकारी-अविकारी भावों से भिन्न जानकर, भिन्न मानकर, अपनीअपनी योग्यतानुसार उसी में जम जाते हैं, रम जाते हैं। इसप्रकार अज्ञानियों को आत्मा अनुपलब्ध रहता है और भेदज्ञानियों को सदा उपलब्ध रहता है । यही आत्मा की उपलब्धि और अनुपलब्धि का रहस्य है । प्रश्न - यहाँ आबाल-गोपाल शब्द का क्या भाव है? उत्तर - 'अज्ञानी-ज्ञानी सभी लोग' - यही अर्थ है आबाल-गोपाल का। बाल माने बालक और गोपाल माने भगवान। इसप्रकार आबालगोपाल का अर्थ हुआ बालक से भगवान तक सभी लोग। बाल माने अबोध बालक और गोपाल माने समझदार वृद्ध। इसप्रकार आबालगोपाल का अर्थ हुआ अबोध बालक से लेकर समझदार वृद्धों तक सभी लोग। बाल माने बालक और गोपाल माने ग्वाले । दुनिया में बालक और ग्वाला - दोनों को ही अल्पबुद्धि माना जाता है। इसप्रकार पूरे वाक्य का भाव यह है यह अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा अबोध बालक और समझदार वृद्ध, ज्ञानी-अज्ञानी सामान्यजन और भगवान सभी के अनुभव में सदा आ रहा है। प्रश्न - 'अनुभूतिस्वरूप भगवान आत्मा सबके अनुभव में सदा आ रहा है' - इस बात को स्वीकार कैसे किया जावे?
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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