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________________ 81 गाथा ७ उससे कहते हैं कि वह शुद्धपर्याय द्रव्य पर लक्ष्य करती है, इसलिए उससे छूटने की बात नहीं करते। __यदि कोई कहे कि जिसप्रकार गुणी में गुणों को – गुणभेद को गौण करते हो; उसीप्रकार पर्याय को भी गौण करो; पर उसका यह कहना ठीक नहीं है; क्योंकि पर्याय तो द्रव्य से भिन्न रहकर उसे विषय बनाती है। वह त्रिकाली द्रव्य में है ही नहीं - इस बात को अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। ___ यद्यपि भेद भी वस्तु का अंश है और उसका जानना राग का कारण भी नहीं है; क्योंकि अरहंत परमात्मा द्रव्य-गुण-पर्याय, भेद-अभेद, लोक-अलोक सभी को जानते हैं; पर उनको राग उत्पन्न नहीं होता; तथापि रागी को भेद के जानने पर राग उत्पन्न होता ही है, विकल्प उत्पन्न होते ही हैं; उनसे पुण्यबंध तो होता है, परन्तु सम्यग्दर्शन की अबंधपर्याय उत्पन्न नहीं होती। इसलिए जबतक रागादिक का अभाव नहीं होता, तबतक भेद को गौण करके - अभेद का अनुभव करना चाहिए। गुणी में गुण नहीं हैं - यह बात नहीं है, पर भेद को गौण करके अभेद का लक्ष्य कराना मूल प्रयोजन है।" यहाँ एक प्रश्न संभव है कि स्वामीजी के उक्त कथन में जहाँ एक ओर निर्मलपर्याय को भी गौण करके द्रव्यस्वभाव का आश्रय लेने की बात कही है, वहीं दूसरी ओर उसे गुणभेद के समान गौण करने को अनुचित भी बताया गया है। - इसका कारण क्या है? । निर्मलपर्याय का सर्वथा निषेध न हो जाय - इस अर्थ में 'गौण करके' कहा गया है और वह गुणों के समान दृष्टि के विषय में शामिल न हो जाय - इसलिए निषेध किया गया है। जिसप्रकार दृष्टि के विषय में गुण अखण्ड अभेदपने शामिल हैं पर गुणभेद नहीं; इसीप्रकार यदि कोई यह कहें कि दृष्टि के विषय में १. प्रवचनरत्नाकर (गुजराती), भाग १, पृष्ठ ११३ से ११६
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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