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________________ समयसार अनुशीलन पर्यायभेद को भले ही शामिल न करो, परन्तु अखण्ड अभेदपने पर्यायों को तो शामिल रखो; परन्तु उसका यह कहना उचित नहीं है; क्योंकि पर्यायें तो विषयी हैं, विषय बनानेवाली हैं; वे विषय में शामिल कैसे हो सकती हैं ? 82 प्रश्न – प्रत्येक वस्तु स्वचतुष्टय से युक्त होती है। स्वचतुष्टय के बिना वस्तु की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। जिसप्रकार प्रत्येक वस्तु स्वयं द्रव्य है, उसके प्रदेश उसका क्षेत्र है, उसके गुण उसका भाव है; उसीप्रकार उसकी पर्यायें उसका काल है । दृष्टि के विषय में गुणभेद का निषेध करके भी गुणों को अभेदरूप से रखकर 'भाव' को सुरक्षित कर लिया गया, प्रदेशभेद का निषेध करके भी प्रदेशों को अभेदरूप से रखकर ' क्षेत्र' को सुरक्षित कर लिया गया; उसीप्रकार पर्यायभेद का निषेध कर पर्यायों को अभेदरूप से रखकर 'काल' को भी सुरक्षित कर लेना चाहिए; पर आप तो पर्यायों का सर्वथा निषेध कर वस्तु को काल से अखण्डित नहीं रहने देना चाहते हैं । इसी समयसार में आगे भावना भाई गई है कि 'न द्रव्येण खण्डयामि, न क्षेत्रेण खण्डयामि, न कालेन खण्डयामि, न भावेन खण्डयामि; सुविशुद्ध एको ज्ञानमात्रभावोऽस्मि' - न मैं द्रव्य से खण्डित हूँ, न क्षेत्र से खण्डित हूँ, न काल से खण्डित हूँ और न भाव से खण्डित हूँ; मैं तो सुविशुद्ध एक ज्ञानमात्र भाव हूँ ।' उक्त भावना में आत्मा को द्रव्यक्षेत्र - काल - भाव से पूर्णतः अखण्डित रखा गया है । उत्तर - दृष्टि के विषयभूत भगवान आत्मा को सामान्य, अनादिअनन्त त्रिकालीध्रुव नित्य, असंख्यातप्र देशी - अभेद, एवं अनन्तगुणात्मक-अखण्ड, एक कहा गया है। इसमें जिसप्रकार सामान्य कहकर द्रव्य को अखण्ड रखा गया है, असंख्यप्रदेशी - अभेद कहकर १. समयसार की आत्मख्याति टीका के परिशिष्ट में २७०वें कलश के बाद का गद्यांश
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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