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गाथा १
कहने वाला नहीं हूँ। इस समयसार में मैं जो कुछ भी कहूँगा, वह सब वस्तुस्वरूप के अनुरूप तो होगा ही, सर्वज्ञ परमात्मा की दिव्यध्वनि के अनुसार भी होगा, गणधरदेव रचित द्वादशांग के अनुसार भी होगा, शुद्धात्मा और सम्पूर्ण पदार्थों के सही स्वरूप को प्रकाशित करने वाला ही होगा । ___ यह काम मैं स्व-पर के कल्याण के लिए ही कर रहा हूँ। वह स्वपर का कल्याण भी कोई लौकिक प्रयोजन की सिद्धि करनेवाला नहीं है अर्थात् अनादिकालीन मोह के नाश के लिए ही यह उपक्रम है । __यहाँ एक प्रश्न सम्भव है कि शिष्यों के तो अनादिकालीन दर्शनमोह
और चारित्रमोह का होना सम्भव हो सकता है; पर आचार्यदेव तो मोहरहित ही हैं, वे तो वीतरागी भावलिंगी संत हैं; उनके मोह का होना कैसे सम्भव है ? जिसके नाश के लिए वे यह उपक्रम कर रहे हैं।
भाई, आचार्यदेव भी अभी पूरी तरह निर्मोही कहाँ हुए हैं ? हो गये होते तो वे वीतरागी-सर्वज्ञ हो गये होते; उनके भी संज्वलन सम्बन्धी चारित्रमोह विद्यमान है । अत: यहाँ जिसके जितना और जिसप्रकार का मोह है, उसे ही लेना चाहिए। मिथ्यादृष्टि जीवों के दर्शनमोह और चारित्रमोह दोनों प्रकार के मोह के नाश की बात लेनी चाहिए एवं चतुर्थ गुणस्थानवर्ती सम्यग्दृष्टियों के मात्र चारित्रमोह के नाश की बात लेनी चाहिए; इसीप्रकार पंचमगुणस्थान वालों के शेष दो कषायरूप चारित्रमोह के नाश की बात लेनी चाहिए और मुनिराजों के मात्र संज्वलन कषाय के नाश की बात लेनी चाहिए। ___ आचार्य अमृतचन्द्र ने मंगलाचरण के तीसरे छन्द में इस ग्रन्थ की टीका करने से अपने चित्त की परमविशुद्धि की कामना ही की है। वही बात वे यहाँ टीका में आचार्य कुन्दकुन्द की ओर से कह रहे हैं। __ भाई, देखो तो आचार्यदेव कह रहे हैं कि यह शास्त्र अरहंत भगवान के प्रवचनों का अवयव है, भगवान की दिव्यध्वनि का अंश है। यह