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________________ समयसार गाथा २८-२९ इणमण्णं जीवादो देहं पोग्गलमयं थुणित्तु मुणी । मण्णदि हु संथुदो वंदिदो मए केवलीभयवं ॥२८॥ तं णिच्छये ण जुज्जदि ण सरीरगुणा हि होंति केवलिणो । केवलिगुणो थुणदि जो सो तच्चं केवलिं थुणदि ॥२९॥ ( हरिगीत ) इस आतमा से भिन्न पुद्गल रचित तन का स्तवन। कर मानना कि हो गया है केवली का स्तवन ॥२८॥ परमार्थ से सत्यार्थ ना वह केवली का स्तवन। केवलि-गुणों का स्तवन ही केवली का स्तवन॥२९॥ जीव से भिन्न इस पुद्गलमय देह की स्तुति करके साधु ऐसा मानते हैं कि मैंने केवली भगवान की स्तुति की और वन्दना की। किन्तु वह स्तवन निश्चयनय से योग्य नहीं है; क्योंकि शरीर के गुण केवली के गुण नहीं होते। जो केवली के गुणों की स्तुति करता है, वह परमार्थ से केवली की स्तुति करता है। ___ आचार्य अमृतचन्द्र २७वीं गाथा की टीका में दिये गये चांदी के संयोगवाले सोने के उदाहरण को ही आगे बढ़ाकर इन गाथाओं के भाव को स्पष्ट करते हैं, जो इसप्रकार है - "यद्यपि परमार्थ से सोना तो पीला ही होता है; तथापि उसमें मिली हुई चांदी की सफेदी के कारण सोने को भी सफेद सोना कह दिया जाता है; पर यह कथन व्यवहार मात्र ही है। उसीप्रकार सफेदी और लालिमा अथवा खून का सफेद होना आदि शरीर के ही गुण हैं । उनके आधार. पर तीर्थंकर केवलीभगवान को सफेद, लाल कहकर अथवा
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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