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________________ 215 गाथा १६ नहीं। उसीप्रकार आत्मा में भी घटित करना चाहिए कि आत्मा के ज्ञान, श्रद्धान और आचरण आत्मा के स्वभाव का उल्लघंन न करने से आत्मा ही है, अन्य वस्तु नहीं। इसलिए यह स्वत: ही सिद्ध हो गया कि एक आत्मा ही उपासना करने योग्य है, सेवन करने योग्य है।'' जैसाकि उत्थानिका के कलश में कहा था कि 'एष ज्ञानघनो आत्मा नित्यं समुपास्यताम्' –इस ज्ञान के घनपिण्ड आत्मा की ही नित्य उपासना करो; ठीक उसीप्रकार टीका के अन्त में भी यही निष्कर्ष निकाला है कि 'तत आत्मा एक एवोपास्य इति स्वयमेव प्रद्योतते - एक आत्मा ही उपासना करने योग्य है ' - यह स्वत: ही सिद्ध हो गया। साध्यभाव और साधकभाव की उपासना की चर्चा कलश की व्याख्या करते समय विस्तार से की ही जा चुकी है; अत: उस सन्दर्भ में कुछ भी लिखने की आवश्यकता नहीं है। प्रश्न –टीका में निश्चय-व्यवहार की संधि स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि स्वयं अन्तर में तो यह निश्चय करें कि एक आत्मा ही सेवन करने योग्य है, उपासना करने योग्य है; परन्तु दूसरों को समझाते समय व्यवहार से ऐसा समझावें कि दर्शन-ज्ञान-चारित्र का सदा सेवन करना चाहिए; क्योंकि ये तीनों एक आत्मा ही हैं, आत्मा की ही पर्यायें हैं, अन्य वस्तु नहीं। उक्त कथन में प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि जब दर्शन-ज्ञान-चारित्र आत्मा ही हैं, तो फिर स्वयं के समझने में और दूसरों को समझाने में यह अन्तर क्यों हो? क्या यह ऐसी बात नहीं हुई कि हाथी के दाँत खाने के और तथा दिखाने के और? उत्तर – नहीं, भाई ! ऐसी बात नहीं है। जबतक भेद करके न समझाया जाय, तबतक अबोध शिष्य की समझ में बात आती नहीं है।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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