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________________ समयसार अनुशीलन 340 चर्चा-वार्ता करते हैं; उससे उनके ज्ञान में निर्मलता बढ़ती है, उनका ज्ञान आत्मसम्मुख होता है और उन्हें आत्मोपलब्धि हो जाती है। -इसी का नाम गुरु के द्वारा निरन्तर समझाया जाना है। गुरु के समझाने की बात तो है ही, पर उससे भी आवश्यक उनकी बताई बात को धारणा में लेने की है, चिन्तन-मनन करने की है, मंथन करके निर्णय पर पहुँचने की है, शिष्यों के आभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग की है, अन्तरलगनी की है। गुरु तो निमित्त मात्र हैं, कार्य तो अन्तर के पुरुषार्थ से होता है। इसप्रकार रत्नत्रयरूप परिणत ज्ञानी आत्मा सोचता है कि मैं एक हूँ, शुद्ध हूँ, दर्शनज्ञानमय हूँ, सदा ही अरूपी. हूँ और परपदार्थ किंचित्मात्र भी मेरे नहीं हैं। मैं तो चैतन्यज्योतिरूप आत्मा हूँ और आत्मानुभव से ही प्रत्यक्ष ज्ञात होता हूँ। यहाँ 'एक' का अर्थ करते हुए कहा गया है कि चिन्मात्र आकार के कारण समस्त क्रमरूप और अक्रमरूप से प्रवर्तमान व्यावहारिक भावों से भेदरूप नहीं होता, इसलिए मैं एक हूँ। उक्त पंक्ति का भाव स्पष्ट करते हुए स्वामीजी कहते हैं - "नरकगति, मोक्षगति इत्यादि गतियाँ क्रम से होती हैं, एक के बाद एक होती हैं; इससे उन्हें क्रमरूप भाव कहा गया है। तथा पर्याय में कषाय, लेश्या, ज्ञान का उघाड़ वगैरह एकसाथ होते हैं, इसकारण उन्हें यहाँ अक्रमरूप भाव कहा गया है। यहाँ क्रम माने पर्याय और अक्रम माने गुण - ऐसा नहीं समझना; किन्तु एक के बाद एक होनेवाली गति के भावों को क्रमरूप व उदय के रागादिभाव, लेश्या के भाव व ज्ञान की एक समय की पर्याय के भाव इत्यादि एक समय होते हैं, उन्हें अक्रमरूप लिया है। ये क्रम-अक्रमरूप प्रवर्तते हुए व्यावहारिकभावों से भेदरूप नहीं होने से मैं एक हूँ; क्योंकि मैं तो अभेद, अखण्ड, आनन्दकंद प्रभु, एक चिन्मात्र वस्तु हूँ।" १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ १३९
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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