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________________ 341 गाथा ३८ स्वामीजी ने जो भाव स्पष्ट किया है, वह तो बढ़िया है ही; तथापि दूसरे अर्थ के रूप में इसप्रकार भी समझ सकते हैं। चौदह गुणस्थान और चौदह मार्गणायें जीव के व्यावहारिकभाव हैं; अत: निश्चयनय से चिन्मात्र आत्मा में उनका अभाव है। चौदह गुणस्थानों और चौदह मार्गणास्थानों में विभक्त होने से आत्मा एकरूप नहीं रहता, अनेकरूप हो जाता है । यही कारण है कि चौदह गुणस्थान और चौदह मार्गणाएँ व्यावहारिक भाव हैं। चौदह गुणस्थानों में से आत्मा के एक समय में एक ही गुणस्थान होता है; अत: वे आत्मा के क्रमिक भाव हैं । परन्तु चौदह मार्गणायें प्रत्येक जीव में एकसाथ ही होती हैं; अतः वे जीव के अक्रमिक भाव हैं। क्रमिक और अक्रमिक - इन दोनों भावों से भिन्न होने से भगवान आत्मा एक है। तात्पर्य यह है कि निश्चयनय का विषयभूत चिन्मात्र आत्मा गुणस्थानरूप क्रमिक भावों से और मार्गणास्थानरूप अक्रमिक भावों से भेदा नहीं जाता, भेद को प्राप्त नहीं होता; अतः वह एक है। प्रश्न -आपने कहा कि मार्गणाएँ प्रत्येक जीव के एकसाथ चौदह होती हैं । कृपया इस बात को घटाकर बताइये, विशेष स्पष्ट कीजिए। उत्तर -हम गतिमार्गणा की अपेक्षा मनुष्य हैं, इन्द्रियमार्गणा की अपेक्षा पंचेन्द्रिय हैं, कायमार्गणा की अपेक्षां औदारिक, तैजस और कार्माणकायवाले हैं। इसीप्रकार चौदहों मार्गणाएँ घटित की जा सकती हैं। गुणस्थानों का एक समय में एक ही होना और चौदह मार्गणाओं का एक साथ होना तो करणानुयोग का प्रसिद्ध सिद्धान्त है। इसमें शंका-आशंका के लिए कोई स्थान नहीं है। इस विषय की विशेष जानकारी के लिए गोम्मटसार जीवकाण्ड का अध्ययन किया जाना चाहिए।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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