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________________ 339 गाथा ३८ "जगत के समस्त परद्रव्य-पुद्गलादि पदार्थ व रागादि आस्रव अपने स्वरूप की संपदा से प्रगट हैं, परन्तु ये समस्त परद्रव्य-अनन्त पुद्गल रजकण, अनन्त आत्माएं व रागादि भाव मुझे निजरूप भासित नहीं होते। परमाणु मात्र भी परद्रव्य अर्थात् पुद्गल का एक रजकण या राग का एक अंश भी मेरा है – ऐसा मुझे भासित नहीं होता।" ___ तात्पर्य यह है कि वे समस्त परद्रव्य अपनी स्वरूपसंपदा से शोभित हैं और मैं अपनी स्वरूपसंपदा से शोभायमान हूँ। मुझमें भासित होने पर भी निजरूप भासित न होने से वे मुझमें मोह उत्पन्न करने में समर्थ नहीं हैं; यही कारण है कि मैं उन सबसे भिन्न निजस्वरूप का अनुभव करता हुआ प्रतापवन्त हूँ। मुट्ठी में रखे हुए सोने को भूल जाने और कारण पाकर स्मरण आने पर प्राप्त करने का उदाहरण देकर आचार्यदेव यह समझाना चाहते हैं कि सोना है तो अपने पास ही, अपनी मुट्ठी में ही; उसे प्राप्त करने के लिए कहीं जाना नहीं है, बस मुट्ठी खोलकर देखना ही है, उसे प्राप्त करने में मुट्ठी खोलकर देखने भर की देर है । इसीप्रकार आत्मा भी है तो अपने पास ही, पास ही क्या हम स्वयं आत्मा ही तो हैं; अत: उसे जानने के लिए, खोजने के लिए कहीं जाना नहीं है; बस परपदार्थों पर से दृष्टि हटाकर निज को निहारना ही है। विरक्त गुरु के द्वारा निरन्तर समझाये जाने का आशय यह नहीं है कि गुरु शिष्यों को निरन्तर समझाते ही रहेंगे; क्योंकि उन्हें अपना काम भी करना है, अपने आत्मा का ध्यान भी करना है ; वे निठल्ले नहीं हैं जो निरन्तर समझाते ही रहेंगे। उन्होंने एकबार, दोबार, तीन-चारबार अच्छी तरह समझा दिया और शिष्य के हृदय में बात बैठ गई, समझ में आ गई और आत्मा को प्राप्त करने की लगन लग गई तो फिर शिष्य उसी बात का निरन्तर घोलन करते हैं, चिन्तन-मनन करते हैं, परस्पर १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ-१४४-४५
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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