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________________ समयसार अनुशीलन 338 परपदार्थों को जानने मात्र से उनसे मोह उत्पन्न नहीं होता, मोह तो उन्हें अपना जानने से; उन्हें अपना मानने से, उनमें जमने-रमने से उत्पन्न होता है। किन्तु मैंने पर में, ज्ञेयभावों में, भावकभावों में अपनेपन की मान्यता को निजरस के बल से जड़मूल से उखाड़ फेंका है और महान ज्ञानप्रकाश प्रगट किया है । अत: इस ज्ञानप्रकाश के रहते मुझे मोह के पुनः उत्पन्न होने की कोई आशंका नहीं है। इसप्रकार मैं सबसे भिन्न निज स्वरूप का अनुभव करता हुआ प्रतापवन्त हूँ। "विचित्रस्वरूपसम्पदा" पद को बाह्य समस्त पदार्थों का विशेषण भी बनाया जा सकता है। ऐसा करने पर यह अर्थ होगा कि समस्त बाह्य पदार्थ अपनी विचित्रस्वरूपसम्पदा के साथ मेरे ज्ञानदर्शन में स्फुरायमान हैं; तथापि कोई भी परद्रव्य परमाणुमात्र भी मुझ रूप नहीं भासते कि जो भावकरूप और ज्ञेयरूप होकर मुझमें पुन: मोह उत्पन्न करें। इस अर्थ में भी वही भाव प्रतिफलित होता है। भले ही उनकी स्वरूप सम्पदा विचित्र हो, अनेक प्रकार की हो, अद्भुत हो और मुझे भासित भी हो रही हो; तथापि जब वे पदार्थ मुझे मुझरूप भासित नहीं होते, 'वे मेरे हैं ' मुझे ऐसा नहीं लगता; तब वे मुझमें मोह उत्पन्न कैसे कर सकते हैं? । दूसरी बात यह है कि उनमें प्रमेयत्व नाम का गुण है, जिनके कारण वे हमारे ज्ञान के ज्ञेय बनते हैं। यह उनकी स्वरूपसम्पदा है। वे अपनी इस स्वरूपसंपदा के कारण हमारे ज्ञान का ज्ञेय बनते हैं और सबको जानना हमारी स्वरूपसंपदा है, जिसके कारण हम उन्हें जानते हैं। ऐसा होने पर भी वे हमारे नहीं हैं - इस महासत्य का ज्ञान हमें प्रगट हुआ है; इसकारण वे रंचमात्र भी हमें हमारे भासित नहीं होते। यही कारण है कि अब हमें उनके प्रति मोह पुनः अंकुरित नहीं होगा। स्वामीजी इस बात को इसप्रकार स्पष्ट करते हैं -
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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