SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 343
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 337 • इसप्रकार सबसे भिन्न निज स्वरूप का अनुभव करता हुआ मैं - प्रतापवन्त हूँ । गाथा ३८ इसप्रकार प्रतापवन्त वर्तते हुए मुझमें मेरी विचित्र स्वरूपसम्पदा के द्वारा यद्यपि बाह्य समस्त परद्रव्य स्फुरायमान हैं ; तथापि मुझे कोई भी परद्रव्य परमाणुमात्र भी मुझरूप भासते नहीं कि जो भावकरूप और ज्ञेयरूप से मेरे साथ होकर मुझमें पुनः मोह उत्पन्न करें; क्योंकि निजरस से ही मोह को पुनः अंकुरित न हो - इसप्रकार मूल से ही उखाड़कर, नाश करके; महान ज्ञानप्रकाश मुझे प्रगट हुआ है । " यहाँ आचार्य अमृतचन्द्रदेव उत्तमपुरुष में बात करते हैं । सो ठीक ही है; क्योंकि मूल गाथा में भी उत्तमपुरुष में ही बात की गई है । 'इसप्रकार सबसे भिन्न निजस्वरूप का अनुभव करता हुआ मैं प्रतापवन्त हूँ । निजरस से ही मोह को मूल से उखाड़कर महान ज्ञानप्रकाश मुझे प्रगट हुआ है । " वाक्यों का प्रयोग तो देखो, भाषा का जोर तो देखो। कितने आत्मविश्वास से भरे हुए वाक्य हैं और कितनी जोरदार प्रस्तुति है । उक्त कथन में प्रबल आत्मविश्वास भरा हुआ है। ज्ञानी जानता है कि अनन्त बाह्य पदार्थ मेरे ज्ञान में झलकते हैं तो इसमें क्या है? यह तो मेरी विचित्र स्वरूपसम्पदा है, इससे मुझे कोई भय नहीं है, इससे मुझे इन्कार भी नहीं; क्योंकि यह तो मेरे स्वभाव की ही विचित्रता है; इसमें कुछ भी ऐसा नहीं, जो मेरे लिए अहितकारी हो । मेरी स्वरूपसम्पदा में झलकने वाले परपदार्थ मेरा कुछ भी नहीं बिगाड़ते । हाँ, जब मैं उनमें अपनापन करता हूँ, उन्हें अपना जानता हूँ; तभी मोह उत्पन्न होता है; परन्तु मुझे तो ज्ञानप्रकाश प्रगट हो गया है; अतः मुझमें झलकते हुए भी वे पदार्थ मुझे मुझरूप भासित नहीं होते । अतः मुझमें मोह भी उत्पन्न नहीं करते । -
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy