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________________ 393 गाथा ४७-४८ उक्त गाथाओं का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - "जिसप्रकार ‘यह राजा पाँच योजन के विस्तार में निकल रहा है' - यह कहना व्यवहारीजनों का सेना समुदाय में राजा कह देने का व्यवहार है; क्योंकि एक राजा का पाँच योजन में फैलना अशक्य है। अत: परमार्थ से राजा तो एक ही है, सेना राजा नहीं है। इसीप्रकार यह जीव समग्र रागग्राम में व्याप्त होकर प्रवृत्त हो रहा है' - यह कहना व्यवहारीजनों का अध्यवसानादि भावों में जीव कहने का व्यवहार है; क्योंकि एक जीव का समग्र रागग्राम में व्याप्त होना अशक्य है। अत: परमार्थ से जीव तो एक ही है, अध्यवसानादि भाव जीव नहीं है।" ४६वीं गाथा में व्यवहारनय की उपयोगिता बताई गई है और ४७वीं व ४८वीं गाथा में अध्यवसानादि भावों को जीव कहने के सन्दर्भ में व्यवहारनय की प्रवृत्ति किसप्रकार होती है - यह बात सेनासहित राजा के गमन का उदाहरण देकर समझाई गई है। अध्यवसानादि भावों को जिनागम में जीव कहा है और यहाँ उन्हें पुद्गल कहा जा रहा है - इसका क्या कारण है? – इस प्रश्न के उत्तर में आचार्यदेव ने कहा था कि अध्यवसानादि भावों को पुद्गल कहना परमार्थ कथन है और उन्हें जीव कहना या जीव का कहना व्यवहार कथन है। उक्त सन्दर्भ में शिष्य का कहना यह है कि व्यवहार तो अनेक प्रकार का होता है – सद्भुत, असद्भूत, उपचरित, अनुपचरित। घी का संयोग देखकर मिट्टी के घड़े को घी का घड़ा कहना भी व्यवहार है और आत्मा में ज्ञान है, दर्शन है, चारित्र है - यह कहना भी व्यवहार है। अध्यवसानादि भावों को जीव का कहना इनमें से कौन-सा व्यवहार है, किसप्रकार का व्यवहार है?
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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