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________________ समयसार गाथा ५ अब इस पाँचवीं गाथा में आचार्यदेव एकत्व - विभक्त आत्मा का स्वरूप दिखाने की प्रतिज्ञा करते हैं और पाठकों से अनुरोध करते हैं कि तुम इसके माध्यम से निज भगवान आत्मा का स्वरूप जानकर विशुद्ध आत्मकल्याण की भावना से स्वीकार करना । इससे तुम्हारा कल्याण अवश्य होगा । मूल गाथा इसप्रकार है तं यत्तविहत्तं दाएहं अप्पणो सविहवेण । जदि दाएज पमाणं चुक्केज्ज छलं ण घेत्तव्वं ॥ ५ ॥ ( हरिगीत ) - निज विभव से एकत्व ही दिखला रहा करना मनन । पर नहीं करना छल ग्रहण यदि हो कहीं कुछ स्खलन ॥ ५ ॥ मैं उस एकत्व-विभक्त भगवान आत्मा को निज वैभव से दिखाता हूँ । यदि मैं दिखाऊँ तो प्रमाण करना, स्वीकार करना और यदि चूक जाऊँ तो छल ग्रहण नहीं करना । यहाँ आचार्यदेव कहते हैं कि मैं अपने सम्पूर्ण वैभव से आत्मा की बात समझाऊँगा और तुम अपने बुद्धिरूप वैभव से सम्पूर्ण शक्ति लगाकर इसे समझने का प्रयास करना । यदि मैं अपने प्रयास में सफल होऊँ और भगवान आत्मा का स्वरूप स्पष्ट कर सकूँ तो तुम उसे अपने अनुभव से प्रमाणित करना, श्रद्धापूर्वक स्वीकार करना । यदि मैं चूक जाऊँ तो किसी भी प्रकार का छल ग्रहण नहीं करना । आचार्य अमृतचन्द्र की टीका के आधार पर लिखे गये भावार्थ में पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा आचार्य कुन्दकुन्द के निजवैभव का स्वरूप स्पष्ट करते हुए लिखते हैं -
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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