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________________ समयसार अनुशीलन 92 इसीप्रकार व्यवहारीजनों को व्यवहारनय से समझा देना अलग बात है और स्वयं व्यवहारी हो जाना एकदम अलग बात है। व्यवहारनय से परमार्थ को समझाने की बात को तो उचित माना जा सकता है, पर व्यवहार को उपादेय मानना कदापि ठीक नहीं है । व्यवहार को उपादेय मानना तो व्यवहारी हो जाना है, म्लेच्छ हो जाने जैसा है। ध्यान रहे – यहाँ व्यवहारनय की हेयोपादेयता पर विचार करते हुए उदाहरण के रूप में व्यवहारनय का वही भेद लिया गया है, जो ७वीं गाथा में कहा गया था। आत्मा शब्द से अपरिचित व्यक्ति से यदि आत्मा-आत्मा ही कहते रहें तो उसकी समझ में कुछ भी नही आवेगा; पर जब उसे इसप्रकार समझावें कि जाने सो आत्मा, देखे सो आत्मा, तो उसकी समझ में आसानी से आ जाता है; परन्तु इसप्रकार के विकल्पों में उलझे रहने से आत्मा की अनुभूति नहीं होती और आत्मा की अनुभूति होना ही वास्तविक आत्मज्ञान है। अत: आत्मा की प्रारंभिक जानकारी प्राप्त करने के लिए जो जाने सो आत्मा, जो देखे सो आत्मा – यह व्यवहार कथन तो उचित ही है, किन्तु आत्मानुभव के लिए नहीं; क्योंकि आत्मानुभवरूप असली आत्मज्ञान के लिए तो इन विकल्पों से भी पार होना होगा, विकल्पातीत होना होगा, व्यवहारातीत होना होगा। यही बात इस गाथा में कही गई है। इसी गाथा के भावार्थ में पण्डित जयचदंजी छाबड़ा लिखते हैं - "इसका अर्थ यह नहीं समझना चाहिए कि यहाँ व्यवहार का आलंबन कराते हैं, प्रत्युत व्यवहार का आलंबन छुड़ाकर परमार्थ में पहुँचाते हैं - यह समझना चाहिए।" ___ इस गाथा की टीका का गहराई से अध्ययन करने पर एक बात ध्यान में आती है कि प्रकारान्तर से इसमें सम्यग्दर्शन के पूर्व होनेवाली पाँच लब्धियों का संकेत भी है। ___ गुरु के मुख से 'आत्मा' शब्द सुनने वाले शिष्य को सैनीपंचेन्द्रिय होने से क्षयोपशमलब्धि तो है ही, परन्तु कुछ भी समझ में न आने पर भी क्रोधित नहीं होना, अरुचि प्रदर्शित नहीं करना और टकटकी
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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