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कलश २
इसका उत्तर कलशटीकाकार पाण्डे राजमलजी ने ऐसा दिया है कि वाणी सर्वज्ञानुसारिणी है। इसके सिवाय जीवादि पदार्थों के स्वरूप का ज्ञान कराने में वाणी निमित्त है । इसलिए वाणी के भी पूज्यपना है।" ___ अनेकान्तमयी जिनवाणी को स्मरण करने वाले उक्त छन्द का भावानुवाद कलश टीका के भाव को ध्यान में रखते हुए कविवर बनारसीदासजी नाटक समयसार में इसप्रकार करते हैं -
( सवैया तेईसा ) जोग धरै रहै जोग सौं भिन्न, अनंत गुनातम केवलज्ञानी। तासु हृदै-द्रह सौं निकसी, सरितासम है श्रुत-सिंधु समानी। याते अनंत नयातम लच्छन, सत्य स्वरूप सिधंत बखानी। बुद्ध लखै न लखै दुरबुद्ध, सदा जगमाँहि जगै जिनवानी॥
अनन्त गुणों के धारक केवलज्ञानी अरहंत भगवान यद्यपि सयोगजिन नामक तेरहवें गुणस्थान में होने से सयोगी हैं, योग सहित हैं; तथापि वे योगों से भिन्न ही हैं। उन अरहंत भगवान के हृदयरूपी सरोवर से नदी के समान निकलकर जिनवाणी गंगा द्वादशांग रूप श्रुतसिन्धु में समा गई है। सिद्धान्त शास्त्रों में, इस जिनवाणी गंगा को अनन्त नयात्मक और वस्तु के सत्य स्वरूप को प्रतिपादन करने वाली कहा है । यद्यपि यह जिनवाणी गंगा जगत में सदा ही जयवंत वर्तती है ; तथापि इसे ज्ञानीजन ही देखते हैं, अज्ञानीजन नहीं देखते।
सर्व परवस्तुओं से भिन्न, नैमित्तिक परभावों से भिन्न व अपने ही स्वरूप में तन्मय आत्मा प्रत्यगात्मा कहलाता है। यहाँ अनेकान्तमयी सरस्वती को उक्त प्रत्यगात्मा की प्रतिपादक कहा गया है और उसके नित्य प्रकाशित रहने की कामना की गई है । तात्पर्य यह है कि प्रत्यगात्मारूप निज भगवान आत्मा की चर्चा-वार्ता, उसके स्वरूप का प्रतिपादन निरन्तर
१. प्रवचनरत्नाकर, भाग १ पृष्ठ १९-२० २. समयसार, सप्तदशांगी टीका, पृष्ठ ३-४