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________________ समयसार अनुशीलन आत्मा के अनन्तधर्मों में चेतनत्व असाधारण धर्म है, वह अन्य अचेतन द्रव्यों में नहीं है । सजातीय जीव द्रव्य अनंत हैं, उनमें भी यद्यपि चेतनत्व है, तथापि सबका चेतनत्व निजस्वरूप से भिन्न-भिन्न कहा है; क्योंकि प्रत्येक द्रव्य के प्रदेशभेद होने से वह किसी का किसी में नहीं मिलता । वह चेतनत्व अपने अनन्तधर्मों में व्यापक है, इसलिए उसे आत्मा का तत्त्व कहा है। उसे यह सरस्वती की मूर्ति देखती है और दिखाती है । इसप्रकार इसके द्वारा सर्व प्राणियों का कल्याण होता है, इसलिए 'सदा प्रकाशरूप रहो' इसप्रकार इसके प्रति आशीर्वादरूप वचन कहा है । " पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा के उक्त कथन से पाण्डे राजमलजी के कथन की तुलना करते हुए श्री कानजीस्वामी कहते हैं " पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा 'सरस्वती' शब्द में श्रुतज्ञान, केवलज्ञान और वाणी - इन तीनों को गर्भित कर लेते हैं, जबकि कलशटीकाकार पाण्डे राजमलजी अकेली वाणी को ही लेते हैं । 12 - यही तो वीतराग का अनेकान्त मार्ग है, जिस अपेक्षा कथन करना हो, वही लागू पड़ जाती है । १. प्रवचनरत्नाकर, भाग १ पृष्ठ १८ २. वही, भाग १ पृष्ठ १९ 'पश्यन्ती' शब्द का अर्थ कलशटीकाकार ने अनुभवशील लिया है तथा अनुभवशील का भाव यह बताया है कि वाणी सर्वज्ञानुसारिणी है अर्थात् उसका स्वभाव सर्वज्ञ के ज्ञानानुसार परिणमित होने का है । पण्डित जयचन्दजी ने पश्यन्ती का अर्थ ऐसा किया है कि भावश्रुतज्ञान आत्मा को परोक्ष देखता है, केवलज्ञान आत्मा को प्रत्यक्ष देखता है और दिव्यध्वनि आत्मा को दिखाती है। यहाँ कोई वितर्क करे कि वाणी तो अचेतन है, उसे नमस्कार क्यों किया?
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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