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________________ 325 कलश ३० उत्तर -जिसप्रकार पहले हास्यादि नोकषायों के आधार पर गाथायें बनाई थी; उसीप्रकार यहाँ भी बनाई जा सकती हैं। ( हरिगीत ) हास्यादि मेरे कुछ नहीं मैं एक हूँ उपयोगमय। है हास्य निर्ममता यही वे कहें जो जाने समय॥ रति आदि मेरे कुछ नहीं मैं एक हूँ उपयोगमय। है रती निर्ममता यही वे कहें जो जाने समय। अरति आदि मेरे कुछ नहीं मैं एक हूँ उपयोगमय । है अरति निर्ममता यही वे कहें जो जाने समय ।। शोकादि मेरे कुछ नहीं मैं एक हूँ उपयोगमय। है शोक निर्ममता यही वे कहें जो जाने समय ॥ इसीप्रकार और भी बना लेना चाहिये। अब इसी भावना को पुष्ट करनेवाला कलशकाव्य लिखते हैं : ( स्वागता ) सर्वतः स्वरसनिर्भरभावं चेतये स्वयमहं स्वमिहैकम्। नास्ति नास्ति मम कश्चन मोहः शुद्धचिद्घनमहोनिधिरस्मि ॥३०॥ ( हरिगीत ) सब ओर से चैतन्यमय निजभाव से भरपूर हूँ। मैं स्वयं ही इस लोक में निजभाव का अनुभव करूँ॥ यह मोह मेरा कुछ नहीं चैतन्य का घनपिण्ड हूँ। हूँ शुद्ध चिद्घन महानिधि मैं स्वयं एक अखण्ड हूँ॥३०॥ इस लोक में मैं स्वयं ही अपने एक आत्मस्वरूप का अनुभव करता हूँ, जो चारों ओर से अपने चैतन्यरस से भरपूर है । यह मोह मेरा कुछ भी नहीं है; क्योंकि मैं तो शुद्ध चैतन्य के समूहरूप तेजपुंज का निधान हूँ। इस छन्द का भावानुवाद नाटक समयसार में इसप्रकार किया गया
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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