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समयसार गाथा ३९ से ४३
अप्पाणमयाणंता मूढा दु परप्पवादिणो केई । जीवं अज्झवसाणं कम्मं च तहा परूवेंति ॥ ३९॥ अवरे अज्झवसाणेसु तिव्वमंदाणुभागगं जीवं । मण्णंति तहा अवरे णोकम्मं चावि जीवो त्ति ॥ ४० ॥ कम्मस्सुदयं जीवं अवरे कम्माणुभागमिच्छंति । तिव्वत्तणमंदत्तणगुणेहिं जो सो हवदि जीवो ॥ ४१ ॥ जीवो कम्मं उहयं दोण्णि वि खलु केइ जीवमिच्छंति । अवरे संजोगेण दु कम्माणं जीवमिच्छंति ॥ ४२ ॥ एवंविहा बहुविहा परमप्पाणं वदंति ते ण परमट्टवादी णिच्छयवादीहिं
दुम्मेहा । णिद्दिट्ठा ॥ ४३ ॥
( हरिगीत )
परात्मवादी मूढ़जन निज आतमा जाने नहीं । अध्यवसान को आतम कहें या कर्म को आतम कहें ॥ ३९॥
अध्यवसानगत जो तीव्रता या मंदता वह जीव है
पर अन्य कोई यह कहे नोकर्म ही मन्द अथवा तीव्रतम जो वह जीव है या कर्म का द्रव कर्म का अर जीव का अथवा कहे कोइ करम का संयोग ही बस इसतरह दुर्बुद्धिजन परवस्तु को परमार्थवादी वे नहीं परमार्थवादी यह
आतम
बस जीव है ॥ ४० ॥ कर्म का अनुभाग है। जो उदय है वह जीव है ॥ ४१ ॥ सम्मिलन ही बस जीव है ।
बस जीव है ॥ ४२ ॥
कहें ।
कहें ॥ ४३ ॥
आत्मा को नहीं जाननेवाले पर को ही आत्मा माननेवाले कई मूढ़ लोग तो अध्यवसान को और कर्म को जीव कहते हैं ।