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________________ समयसार अनुशीलन ४९२ हो साध्यसिद्धि एक बस सद्ज्ञानदर्शनचरण से। पथ अन्य कोई है नहीं जिससे बचे संसरण से॥१९।। त्रैरूपता को प्राप्त है पर ना तजे एकत्व को। यह शुद्ध निर्मल आत्मज्योति प्राप्त है जो स्वयं को। अनुभव करें हम सतत हीचैतन्यमय उस ज्योति का। क्योंकि उसके बिना जग में साध्य की हो सिद्धि ना॥२०॥ (रोला) जैसे भी हो स्वत: अन्य के उपदेशों से। भेदज्ञानमूलक अविचल अनुभूति हुई हो। ज्ञेयों के अगणित प्रतिबिम्बों से वे ज्ञानी। अरे निरन्तर दर्पणवत् रहते अविकारी॥२१॥ (हरिगीत) आजन्म के इस मोह को हे जगतजन तुम छोड़ दो। अर रसिकजन को जोरुचे उस ज्ञान के रस कोचखो। तादात्म्य पर के साथ जिनका कभी भी होता नहीं। अर स्वयं का ही स्वयं से अन्यत्व भी होता नहीं।।२२।। निजतत्त्व का कौतूहली अर पड़ौसी बन देह का। हे आत्मन् ! जैसे बने अनुभव करो निजतत्त्व का। जबभिन्नपर से सुशोभित लख स्वयंको तब शीघ्र ही। तुम छोड़ दोगे देह से एकत्व के इस मोह को।।२३।। लोकमानस रूप से रवितेज अपने तेज से। जो हरें निर्मल करें दशदिश कान्तिमय तनतेज से।। जो दिव्यध्वनि से भव्यजन के कान में अमृत भरें। उन सहस अठ लक्षण सहित जिन-सूरि को वंदन करें॥२४॥ प्राकार से कवलित किया जिस नगरने आकाश को। अर गोल गहरी खाई से है पी लिया पाताल को॥
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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