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________________ 195 चारों ओर से एक विज्ञानघनता के कारण यह आत्मा भी ज्ञानरूप से ही स्वाद में आता है । " गाथा १५ टीका में समागत भाव की चर्चा करने से पहले विषय के विशेष स्पष्टीकरण के लिए इस टीका का अर्थ लिखने के उपरान्त जो भावार्थ पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा ने लिखा है; उसे देख लेना भी उपयोगी रहेगा । वह भावार्थ इसप्रकार है - 44 'यहाँ आत्मा की अनुभूति को ही ज्ञान की अनुभूति कहा गया है । अज्ञानीजन ज्ञेयों में ही, इन्द्रियज्ञान के विषयों में ही लुब्ध हो रहे हैं । वे इन्द्रियज्ञान के विषयों से अनेकाकार हुए ज्ञान को ही ज्ञेयमात्र आस्वादन करते हैं, परन्तु ज्ञेयों से भिन्न ज्ञानमात्र का आस्वादन नहीं करते और जो ज्ञानी हैं, ज्ञेयों में आसक्त नहीं हैं; वे ज्ञेयों से भिन्न एकाकार ज्ञान का ही आस्वाद लेते हैं; जिसप्रकार शाकों से भिन्न नमक की डली का क्षारमात्र स्वाद आता है, उसीप्रकार आस्वाद लेते हैं; क्योंकि जो ज्ञान है, सो आत्मा है और आत्मा है, सो ज्ञान है । - इसप्रकार गुण गुणी की अभेददृष्टि में आनेवाला सर्व परद्रव्यों से भिन्न अपनी पर्यायों में एकरूप निश्चल, अपने गुणों में एकरूप, परनिमित्त से उत्पन्न हुए भावों से भिन्न अपने स्वरूप का अनुभव ही ज्ञान का अनुभव है । और यह अनुभवन भावश्रुतज्ञानरूप जिनशासन का अनुभवन है, शुद्धनय से इसमें कोई भेद नहीं हैं।" I उक्त टीका व भावार्थ में एक बात विशेष कही गई है कि आत्मानुभूति ही ज्ञानानुभूति है । उत्थानिका के कलश में भी इसी बात को विशेष बल देकर कहा गया था कि शुद्धनयात्मक आत्मानुभूति ही ज्ञानानुभूति है । टीका के आरंभ में कहा गया है कि जो यह अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, अविशेष और असंयुक्त ऐसे पांचभावस्वरूप आत्मा की अनुभूति है, वह निश्चय से समस्त जिनशासन की अनुभूति है; क्योंकि श्रुतज्ञान स्वयं आत्मा ही है । इसलिए ज्ञान की अनुभूति ही आत्मा की अनुभूति है ।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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