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________________ समयसार अनुशीलन 196 उक्त कथन का भाव स्वामीजी इसप्रकार स्पष्ट करते हैं - "श्रुतज्ञान स्वयं आत्मा ही है। भाव श्रुतज्ञानरूप शुद्धोपयोग से जो आत्मा का अनुभव हुआ, वह आत्मा ही है; क्योंकि रागादि आत्मा नहीं, अनात्मा हैं । धर्मी को भी अनुभूति के पश्चात् जो राग आता है, वह अनात्मा है । द्रव्यश्रुत में भी यही कहा है और यही अनुभव में आया। इसलिए ज्ञान की अनुभूति ही आत्मा की अनुभूति है; क्योंकि भाव श्रुत में जो त्रिकाली वस्तु ज्ञात हुई, वह वीतरागस्वरूप है और उसकी जो अनुभूति प्रगट हुई - वह वीतराग परिणति है। भगवान आत्मा त्रिकाल मुक्त स्वरूप ही है, उसका पर्याय में अनुभव हुआ, वह भाव श्रुतज्ञान है, शुद्धोपयोग है, आत्मा की ही जाति का होने से आत्मा ही है। अनुभूति में पूरे आत्मा का नमूना आया, इसलिए वह आत्मा ही है। इसे द्रव्य की अनुभूति कहो या ज्ञान की अनुभूति कहो - एक ही चीज है । 'ही' शब्द लिया है। यह सम्यक्एकान्त है।" ___ द्रव्य और शुद्धपर्याय को अभेद करके कहनेवाले कथन परमागम में बहुत हैं । उक्त कथन भी इसीप्रकार का है। शुद्धनय के विषय को भी 'शुद्धनय' इसी अपेक्षा से कहा जाता है। आगे १६वीं गाथा में भी कहेंगे कि परमार्थ से देखा जाये तो ये तीनों एक आत्मा ही हैं; क्योंकि वे अन्य वस्तु नहीं हैं, आत्मा की ही पर्यायें हैं। ___ इस पन्द्रहवीं गाथा की टीका की विशेष बात तो यह है कि इसमें सामान्यनमक और विशेषनमक का उदाहरण देकर सामान्यज्ञान और विशेषज्ञान के आविर्भाव और तिरोभाव को समझाया गया है। यद्यपि नमक तो नमक ही है और वह एकप्रकार का ही होता है; तथापि उसे सामान्यनमक और विशेषनमक के रूप में दो भागों में १. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी), भाग १, पृष्ठ २६१
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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