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समयसार अनुशीलन
यद्यपि यह आत्मा एक है, तथापि व्यवहारदृष्टि से देखा जाये तो त्रिस्वभावरूपता के कारण अनेक है, अनेकाकार है, मेचक है; क्योंकि वह दर्शन, ज्ञान और चारित्र - इन तीन भावोंरूप परिणमन करता है।
यद्यपि व्यवहारनय से आत्मा अनेकरूप कहा गया है, तथापि परमार्थ से विचार करें तो - शुद्धनिश्चयनय से देखें तो प्रगटज्ञायकज्योतिमात्र से आत्मा एक ही है, एकस्वरूप ही है; क्योंकि सर्व अन्यद्रव्यों के स्वभाव तथा उनके निमित्त से होनेवाले अपने विभाव भावों को दूर करने का उसका स्वभाव है। इसलिए वह परमार्थ से शुद्ध है, एकाकार है, अमेचक है।
यह आत्मा मेचक है, भेदरूप अनेकाकार है, मलिन है; अथवा अमेचक है, अभेदरूप एकाकार है, शुद्ध है, निर्मल है, - ऐसी चिन्ता से बस हो, इसप्रकार के अधिक विकल्पों से कोई लाभ नहीं है; क्योंकि साध्य आत्मा की सिद्धि तो दर्शन, ज्ञान और चारित्र - इन भावों से ही होती है, अन्यप्रकार से नहीं। - यह नियम है।
उक्त कलशों में एकाकार-अनेकाकार, अमेचक-मेचक, निर्मलमलिन, अभेद-भेद के सन्दर्भ में निश्चय, व्यवहार और प्रमाण का पक्ष प्रस्तुत करने के उपरान्त यह बताया गया है कि यह सब जान लेने के बाद इन्हीं विकल्पों में उलझे रहने से कोई लाभ नहीं है; क्योंकि साध्य की सिद्धि - अतीन्द्रिय आनन्द की प्राप्ति इन विकल्पों से प्राप्त होने वाली नहीं है। साध्य की सिद्धि तो निश्चयनय (परमशुद्धनिश्चयनय) के विषयभूत भगवान आत्मा के आश्रय से ही होनेवाली है, अथवा इसी आत्मा के आश्रय से उत्पन्न होनेवाले निश्चय सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र से ही होनेवाली है।
उक्त भाव को नाटक समयसार में कविवर पण्डित बनारसीदासजी इसप्रकार व्यक्त करते हैं --