SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 45
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 37 गाथा २ ___ यदि औदयिक अजान की वात नहीं है और ज्ञानी के क्षायांपशमिक अज्ञान होता ही नहीं है तो फिर कौन-सा अज्ञान है? __ भाई. यहाँ मुख्यरूप से तो मिथ्यादृष्टि को ही परसमय बताना है। इसी बात पर वजन डालने के लिए यहाँ यह कहा गया है कि जब अरहंत की भक्ति से मुक्ति प्राप्त होती है - इस अभिप्राय वाले भी परसमय कहे जाते हैं तो फिर विषय-कषाय में सुखबुद्धि से निरंकुश प्रवृत्ति करनेवाले तो परसमय होंगे ही। __ वस्तुत: तो यहाँ चारित्र के दोष पर ही वजन है, श्रद्धा या ज्ञान के दोष पर नहीं; भले ही अज्ञान शब्द का प्रयोग किया हो, पर साथ ही ज्ञानी शब्द का भी प्रयोग है न ? तथा यह भी लिखा है कि रागलव के सद्भाव के कारण परसमयरत है। यहाँ 'रागलव के सद्भाव के कारण' - यह वाक्य विशेष ध्यान देने योग्य है। ___ यही कारण है कि आचार्य अमृतचन्द्र को उन्हें परसमय कहने में संकोच का अनुभव हो रहा है। उनका यह संकोच इस रूप में व्यक्त हुआ है कि वे कहते हैं यह सूक्ष्मपरसमय का कथन है । यद्यपि गाथा में ऐसा कोई भेद नहीं किया है, तथापि अमृतचन्द्र टीका के आरम्भ में ही यह बात लिखते हैं। ___ 'श्रद्धा के दोषवाले मिथ्यादृष्टि स्थूलपरसमय और चारित्र के दोषवाले सराग सम्यग्दृष्टि सूक्ष्मपरसमय हैं ' - इसप्रकार का भाव ही इसी गाथा की टीका में आचार्य जयसेन ने व्यक्त किया है। उनके मूल कथन का भाव इसप्रकार है - __ "कोई पुरुष निर्विकार शुद्धात्मभावना लक्षणवाले परमोपेक्षासंयम में स्थित होने में अशक्त होता हुआ काम-क्रोधादि अशुद्ध (अशुभ) परिणामों से बचने के लिए तथा संसार की स्थिति का छेद करने के लिए जब पंचपरमेष्ठी का गुणस्तवन करता है, भक्ति करता है, तब
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy