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________________ 295 गाथा ३२.३३ ___ यह दूसरी व तीसरी निश्चयस्तुति का कथन है । दृसरी स्तुति भाव्यभावकसंकर दोष के परिहारपूर्वक होती है और तीसरी स्तुति भाव्यभावक भाव के अभावपूर्वक होती है। चारित्रमोहनीय कर्म के उदय का निमित्त पाकर संसारी आत्मा राग-द्वेषरूप परिणमित होते हैं। इसकारण उदय को प्राप्त चारित्रमोहनीय कर्म हुआ भावक और उसके उदयानुसार राग-द्वेषरूप परिणमित आत्मा हुआ भाव्य। ध्यान रहे, सत्ता में पड़ा हुआ सामान्य मोहनीय कर्म भावक नहीं है और न ही सामान्य राग-द्वेष भाव्य ही हैं। उदय या उदीरणा में आये हुये मोहनीय कर्म की ही भावक संज्ञा है और रागद्वेषरूप परिणमित आत्मा की भाव्य संज्ञा है। अकेले राग-द्वेष तो भाव हैं, भाव्य नहीं; उदयागत मोहकर्मरूप भावक का भाव्य तो राग-द्वेषरूप परिणमित आत्मा ही है। ये भाव्य-भावक शब्द एक-दूसरे की अपेक्षा रखते हैं। जिसप्रकार ज्ञेय-ज्ञायक शब्द परस्पर सापेक्ष हैं, उसीप्रकार ये भाव्य-भावक शब्द भी परस्पर सापेक्ष हैं। इस बात को स्पष्ट करते हुये आचार्य जयसेन लिखते हैं - "भाव्यो रागादिपरिणत आत्मा, भावको रंजक उदयागतो मोहस्तयोर्भाव्यभावकयोः शुद्धजीवेन सह संकरः संयोगः संबंध: स एव दोषः । तं दोषं स्वसंवेदनज्ञानबलेन योऽसौ परिहरति सा द्वितीया स्तुतिरिति भावार्थः। ___ रागादिरूप परिणत आत्मा भाव्य है और उदय में आया हुआ मोहकर्म भावक है, रंजक है। इन भाव्य और भावक-दोनों का शुद्धजीव के साथ जो संकर अर्थात् संयोग है, संयोग संबंध है; वह ही भाव्य-भावकसंकर दोष है। उस दोष का जो पुरुष स्वसंवेदन ज्ञान के बल से परिहार करता है; वह दूसरी स्तुति है। - यह भावार्थ है।" उक्त पंक्तियाँ समयसार की ३२वीं गाथा की आचार्य जयसेन द्वारा की गई तात्पर्यवृत्ति नामक संस्कृत टीका की हैं। इसीप्रकार का भाव ३३वीं गाथा की टीका में भी व्यक्त किया गया है।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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