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________________ समयसार अनुशीलन भिन्न नवपदार्थों को जाने और शुद्धनय से आत्मा को न जाने तबतक पर्यायबुद्धि है । " 152 उक्त सम्पूर्ण कथन से यह निष्कर्ष निकलता है कि नवतत्त्वों में भी सर्वत्र एक जीवतत्त्व ही प्रकाशमान है और शुद्धनय से उसे जानना ही भूतार्थनय से जाने हुए नवतत्त्व हैं, जिन्हें सम्यग्दर्शन कहा गया है । अब इसी अर्थ को पुष्ट करनेवाला कलश लिखते हैं और उसमें प्रेरणा देते हैं कि हे भव्यजनो ! तुम तो नवतत्त्वों में प्रकाशमान एक आत्मज्योति को ही देखो। ( मालिनी ) चिरमिति नवतत्त्वच्छन्नमुन्नीयमानं, कनकमिव निमग्नं वर्णमालाकलापे । अथ सततविविक्तं दृश्यतामेकरूपं, प्रतिपदमिदमात्मज्योतिरुद्योतमानम् ॥ ८ ॥ ( रोला ) शुद्धकनक ज्यों छिपा हुआ है बानभेद में । नवतत्त्वों में छिपी हुई त्यों आत्मज्योति है ॥ एकरूप उद्योतमान पर से विविक्त वह । अरे भव्यजन ! पद-पद पर तुम उसको जानो ॥ ८ ॥ जिसप्रकार वर्णों के समूह में छिपे हुए एकाकार स्वर्ण को बाहर निकालते हैं; उसीप्रकार नवतत्त्वों में बहुत समय से छिपी हुई यह आत्मज्योति शुद्धनय के द्वारा बाहर निकालकर प्रगट की गई है और यह आत्मज्योति पद-पद पर अर्थात् प्रत्येक पर्याय में चित्-चमत्कारमात्र एकरूप में उद्योतमान है । इसलिए हे भव्यजीवो ! तुम इसे सदा ही अन्यद्रव्यों एवं उनके आश्रय से होनेवाले नैमित्तिकभावों से भिन्न एकरूप देखो।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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