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________________ समयसार अनुशीलन 112 इस गाथा में जो शुद्धनय शब्द का प्रयोग है, वह परमशुद्धनिश्चयनय के अर्थ में ही है। यहाँ एकमात्र उसे ही भूतार्थ कहा गया है, शेष निश्चयनय भी परमशुद्धनिश्चयनय की अपेक्षा व्यवहार ही हो जाते हैं; अत: किसी अपेक्षा वे भी अभूतार्थ हो जाते हैं; परन्तु परमशुद्धनिश्चयनय सदा ही भूतार्थ रहता है। जैसा कि छठवीं गाथा के भावार्थ में छाबड़ाजी ने लिखा है कि 'अशुद्धद्रव्यार्थिकनय भी शुद्धद्रव्य की दृष्टि में पर्यायार्थिक ही है; इसलिए व्यवहार ही है - ऐसा आशय समझना चाहिए।' गाथा में स्पष्टरूप से कहा गया है कि जो जीव भूतार्थ का आश्रय करता है, वह जीव सम्यग्दृष्टि होता है। अत: यह सुनिश्चित ही है कि जिस नय की विषयभूत वस्तु में अपनापन स्थापित करने से सम्यग्दर्शन होता है, वही नय भूतार्थ है, सत्यार्थ है। उक्त आठ नयों में एक परमशुद्धनिश्चयनय ही ऐसा है, जिसके विषयभूत आत्मद्रव्य में अपनापन स्थापित होने से सम्यग्दर्शन होता है; अतः वह ही वास्तविक शुद्धनय है और वही भूतार्थ है; शेष सभी नय अभूतार्थ हैं। प्रश्न - उक्त व्याख्या के अनुसार तो निश्चयनय के आरंभिक तीन भेद भी अभूतार्थ हो गये। तो क्या अशुद्धनिश्चयनय, एकदेशशुद्धनिश्चयनय एवं साक्षात्शुद्धनिश्चयनय भी अभूतार्थ हैं ? उत्तर - 'शुद्धनय' शब्द के प्रयोग से यह तो सुनिश्चित ही है कि उसमें . अशुद्धनिश्चयनय को शामिल करना अभीष्ट नहीं है। शुद्धनिश्चयनय के संदर्भ में आचार्य जयसेन का वह कथन द्रष्टव्य है, जिसमें वे आचार्य अमृतचन्द्रकृत अर्थ को स्वीकार करते हुए इस गाथा का एक और भी अर्थ करते हैं, जो इसप्रकार है - ___ "द्वितीय व्याख्यान से व्यवहारनय भी भूतार्थ और अभूतार्थ इन दो भेदोंरूप कहा गया है। न केवल व्यवहारनय ही भूतार्थ और अभूतार्थ के भेद से दो प्रकार का है, अपितु शुद्धनिश्चयनय भी भूतार्थ और अभूतार्थ के भेद से दो प्रकार का है।"
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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