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________________ 111 गाथा ११ उपचरित असद्व्यवहारनय है और आत्मा के साथ एकक्षेत्रावगाहरूप से रहनेवाले शरीर को अथवा आत्मा और शरीर के मिले हुए रूप को आत्मा कहना, आत्मा का कहना, आत्मा को उसका कर्ता-भोक्ता-ज्ञाता कहना अनुपचरित-असद्भूतव्यवहारनय है। अभेद-अखण्ड आत्मा को गुणों और पर्यायों के भेद करके समझना, समझाना, कहना, सद्भूतव्यवहारनय का कार्य है। __ अल्पविकसित एवं विकारी पर्यायों को आत्मा का कहना, उनका कर्ता-भोक्ता-ज्ञाता आत्मा को कहना उपचरित -सद्भूतव्यवहारनय का कथन है और अभेद आत्मा में ज्ञान-दर्शन-चारित्र के भेद करना तथा पूर्ण विकसित निर्मलपर्यायों को आत्मा का कहना, उनका कर्ताभोक्ता-ज्ञाता आत्मा को कहना अनुपचरित-सद्भूतव्यवहारनय का कार्य है। रागादि विकारी भावों से आत्मा को अभेद बताना अशुद्धनिश्चयनय है। आत्मा को मिथ्यादृष्टि कहना इसी नय का काम है। एक देशशुद्धपर्याय से आत्मा को अभेद बताना एकदेशशुद्धनिश्चयनय है। आत्मा को सम्यग्दृष्टि, देशसंयमी कहना इसी नय का कथन है। __ पूर्णशुद्धपर्याय से आत्मा को अभेद बताना शुद्धनिश्चयनय या साक्षात्शुद्धनिश्चयनय है । आत्मा को केवलज्ञानी कहना, सिद्ध कहना इसी नय का कथन है। ___ आत्मा को सम्पूर्ण शुद्धाशुद्धपर्यायों से रहित, गुणभेद से भिन्न, अभेद-अखण्ड-नित्य जानना-कहना परमशुद्धनिश्चयनय है । त्रिकाली ध्रुव ज्ञायकभाव इसी परमशुद्धनिश्चयनय का विषय है। परमशुद्धनिश्चयनय का विषयभूत यह ज्ञायकभाव ही दृष्टि का विषय है और इसके आश्रय से ही सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र की प्राप्ति होती है।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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