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________________ समयसार अनुशीलन 356 ही सम्बोधित करेंगे; क्योंकि एक तो यह शब्द अब पूरी तरह प्रचलन में आ गया है, दृसर यह अनुशीलन अकेली आत्मख्याति के आधार पर ही नहीं हो रहा है । यद्यपि इसका मूल आधार आत्मख्याति ही है, तथापि अन्य आधारों का भी भरपूर उपयोग हो रहा है। अतः हमें अधिकार शब्द का प्रयोग ही उपयुक्त लग रहा है। __ आचार्य अमृतचन्द्र के अनुसार यह ग्रन्थ नाटक है और यहाँ पूर्वरंग समाप्त हुआ है । अत: पूर्वरंग एवं ग्रन्थ की नाटकीयता को स्पष्ट करते हुए पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा लिखते हैं - "यहाँ टीकाकार का यह आशय है कि इस ग्रन्थ को अलंकार से नाटक रूप में वर्णन किया है। नाटक में पहले रंगभूमि रची जाती है। वहाँ देखनेवाले, नायक तथा सभा होती है और नृत्य (नाट्य, नाटक) करनेवाले होते हैं, जो विविधप्रकार के स्वांग रखते हैं तथा श्रृंगारादिक आठ रसों का रूप दिखलाते हैं । वहाँ श्रृंगार, हास्य, रौद्र, करुण, वीर, भयानक, वीभत्स और अद्भुत- ये आठ रस लौकिक रस हैं; नाटक में इन्हीं का अधिकार है। नवाँ शान्तरस है, जो कि अलौकिक है; नृत्य में उसका अधिकार नहीं है। इन रसों के स्थायीभाव, सात्विकभाव, अनुभावीभाव, व्यभिचारीभाव और उनकी दृष्टि आदि का वर्णन रसग्रन्थों में है, वहाँ से जान लेना। सामान्यतया रस का यह स्वरूप है कि ज्ञान में ज्ञेय आया, उसमें ज्ञान तदाकार हुआ, उसमें पुरुष का भाव लीन हो जाये और अन्य ज्ञेय की इच्छा नहीं रहे, सो रस है। उन आठ रसों का रूप नृत्य में नृत्यकार बतलाते हैं और उनका वर्णन करते हुए कवीश्वर जब अन्यरस को अन्यरस के समान भी वर्णन करते हैं, तब अन्यरस का अन्यरस अंगभूत होने से अन्यभाव रसों का अंग होने से, रसवत् आदि अलंकार से उसे नृत्यरूप में वर्णन किया जाता है। यहाँ पहले रंगभूमिस्थल कहा। वहाँ देखनेवाले तो सम्यग्दृष्टि पुरुष
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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