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________________ 355 कलश ३२ पाप पुन्न की एकता वरनी अगम अनृप। अब आस्रव अधिकार कछु कहौं अध्यातम रूप ॥" लगभग सभी अधिकारों के आरंभिक छन्दों में इसप्रकार का प्रयोग पाया जाता है। लेकिन ग्रन्थ के आरंभ में जहाँ बारह अधिकारों के नाम गिनाये गये हैं; वहाँ द्वार शब्द का प्रयोग है; जो इसप्रकार है - ( सवैया इकतीसा ) जीव निरजीव करता-करम पुन्न-पाप । आस्रव संवर निरजरा बंध मोष है। सरवविसुद्धि स्याद्वाद साध्य-साधक। दुवादस दुवार धरे ससार कोष है ॥२ ग्रन्थ के अन्त में भी इसीप्रकार का उल्लेख है: ( दोहा ) नाम साध्य-साधक कह्यौ, द्वार द्वादसम ठीक। समयसार नाटक सकल, पूरन भयो सटीक॥ यदि यह मान लें कि छन्दों में छन्दानुरोध से यथावकाश द्वार और अधिकार शब्दों का प्रयोग किया गया होगा; परन्तु इससे यह तो प्रतीत होता ही है कि उन्हें दोनों ही शब्द अभीष्ट हैं, किसी से भी परहेज नहीं है; तथापि प्रकाशकों द्वारा यह ध्यान तो रखा ही जाना चाहिए था कि कम से कम शीर्षकों में एकरूपता रहे । दोनों में से जो भी शीर्षक उन्हें अच्छे लगें, रखें; पर एकरूपता होना चाहिए। लगता है, इस ओर उनका ध्यान ही नहीं जा पाया है। उक्त मंथन के उपरान्त हम इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि हम इस समयसार अनुशीलन में अध्यायों के विभाजन को अधिकार शब्द से ३. समयसार नाटक : आस्रव अधिकार, छन्द-१ ४. समयसार नाटक : उत्थानिका- छन्द-५१ ५. समयसार नाटक : साध्य-साधक द्वार, छन्द-५३
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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