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________________ समयसार अनुशीलन 186 इसी भूल के कारण ही यह अज्ञानी जगत महादु:खी है। इस दुःख को दूर करने का उपाय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र है तथा देहदेवल में विराजमान इस आत्मा को जानना ही सम्यग्ज्ञान है, इसमें अपनापन होना ही सम्यग्दर्शन है, इसमें जमना-रमना ही सम्यक्चारित्र है। इसे जानना, पहिचानना, इसमें जमना-रमना ही मोह को हटात् हटाने का पुरुषार्थ है; इसके अतिरिक्त कोई क्रिया ऐसी नहीं है, जो मोह का नाश कर सके; शेष क्रियायें तो बंध को बढ़ानेवाली ही हैं। इस आत्मा की अनुभूति ही ज्ञान की अनुभूति है। अत: एक इस आत्मा में ही निश्चल हो जाना चाहिए। यह बात आगामी कलश में व्यक्त करते हैं; जो इसप्रकार है - ( वसंततिलका ) आत्मानुभूतिरिति शुद्धनयात्मिका या ज्ञानानुभूतिरियमेव किलेति बुद्ध्वा । आत्मानमात्मनि निवेश्य सुनिष्प्रकंप मेकोऽस्ति नित्यमवबोधघनः समंतात् ॥१३॥ ( रोला ) शुद्धनयातम आतम की अनुभूति कही जो। वह ही है ज्ञानानुभूति तुम यही जानकर ।। आतम में आतम को निश्चल थापित करके। सर्व ओर से एक ज्ञानघन आतम निरखो॥१३॥ इसप्रकार जो शुद्धनयस्वरूप आत्मा की अनुभूति है, वही वास्तव में ज्ञान की अनुभूति है । यह जानकर तथा आत्मा में आत्मा को निश्चल स्थापित करके ज्ञान के घनपिण्ड और नित्य इस आत्मा को सदा ही देखना-जानना चाहिए। इस कलश का भावानुवाद कविवर पंडित बनारसीदासजी नाटक समयसार में इसप्रकार करते हैं -
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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