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________________ 269 गाथा २६ नयविभाग से अपरिचित अप्रतिबुद्ध शिष्य ने अद्यावधि उपलब्ध स्तुति साहित्य को आधार बनाकर देह में अनादिकालीन एकत्वबुद्धि का ही पोषण किया है। नयविभाग से अपरिचित अज्ञानीजन जिनागम का अभ्यास करके भी इसीप्रकार अनादिकालीन अगृहीत मिथ्यात्व का पोषण करते हैं; इसीकारण जैन होकर भी, जैन शास्त्रों को पढ़कर भी गृहीत मिथ्यादृष्टि ही रहते हैं । इन्हीं को लक्ष्य में रखकर पण्डित टोडरमलजी ने मोक्षमार्ग प्रकाशक में सातवाँ अधिकार लिखा है । इस सम्बन्ध में विशेष जानकारी के लिए मोक्षमार्ग प्रकाशक के सातवें-आठवें अधिकार का गहराई से अध्ययन किया जाना चाहिए । सौ बात की एक बात अहो ! दिगम्बर संतों का कोई भी शास्त्र लो; उसमें मूलभूत एक ही धारा चली जाती है कि तू ' सर्वत्र अपने ज्ञायक चिदानन्दस्वरूप के सन्मुख हो;' पर को बदलने की बुद्धि मिथ्या है। स्वोन्मुख होने से ही हित है, इस बात को मुख्य रखकर कोई भी बात कही हो सर्वज्ञता की बात हो या क्रमबद्धपर्याय की बात हो; छहद्रव्य, नवतत्त्व, निश्चय व्यवहार या उपादान - निमित्त की बात हो; द्रव्य-गुण-पर्याय की बात हो या बारह भावनाओं की बात हो; सभी बातों में संतों का मूल तात्पर्य तो यही बतलाना है कि हे जीव ! अपने ज्ञानस्वभाव का निर्णय करके उसकी ओर उन्मुख हो ! - 'मैं तो ज्ञानपिण्ड हूँ, ज्ञान के अतिरिक्त अन्य पदार्थों का किंचित्मात्र कर्तृत्व मुझमें नहीं हैं; ' • जबतक जीव ऐसा निर्णय न करे तबतक हित का मार्ग हाथ नहीं आता, और दिगम्बर संतों ने क्या कहा है – इसकी भी उसे खबर नहीं पड़ती। आध्यात्मिक सत्पुरुष श्रीकानजीस्वामी वीतराग - विज्ञान, दिसम्बर - ८४
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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