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________________ समयसार गाथा २७ अप्रतिबुद्ध के उक्त कथन के उत्तर में आचार्य अमृतचन्द्र की लेखनी से एक ही वाक्य प्रस्फुटित होता है कि - "ऐसा नहीं है, तुम नयविभाग से अनभिज्ञ हो नयविभाग को नहीं जानते हो " इसकारण ही ऐसी बातें करते हो। मूल समस्या नयविभाग से अनभिज्ञता की ही है। नयविभाग को समझे विना देह में एकत्वबुद्धि एवं ममत्वबुद्धिरूप अज्ञान का, अगृहीत मिथ्यात्व का पोषण हो जाता है | अतः नयों का स्वरूप जानना अत्यन्त आवश्यक है । - 'द्रव्यस्वभावप्रकाशक नयचक्र' में तो यहाँ तक लिखा है कि " जे यदिट्टिविहीणा ताण ण वत्थूसहावउवलद्धि । वत्थुसहावविहूणा सम्मादिट्ठी कहं हुंति ॥ १८९ ॥ जो व्यक्ति नयदृष्टि से विहीन हैं, उन्हें वस्तुस्वरूप का सही ज्ञान नहीं हो सकता और वस्तु स्वरूप को नहीं जाननेवाले सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकते हैं?" अतः नयविभाग का जानना अत्यन्त आवश्यक हैं। वह नयविभाग क्या है ? इसके उत्तर में ही २७वीं गाथा का अवतार हुआ है, जो इसप्रकार है ववहारणओ भासदि जीवो देहो य हवदि खलु एक्को । ण दु णिच्छयस्स जीवो देहो य कदा वि एक्कट्ठो ॥ २७ ॥ ( हरिगीत ) - - 'देह - चेतन एक हैं' - यह वचन है व्यवहार का । 'ये एक हो सकते नहीं' यह कथन है परमार्थ का ॥ २७ ॥ - - - व्यवहारनय तो यह कहता है कि जीव और शरीर एक ही है; किन्तु निश्चयनय के अभिप्राय से जीव और शरीर कभी भी एक पदार्थ नहीं है ।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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