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________________ समयसार गाथा २ प्रथम गाथा में समयप्राभृत कहने की प्रतिज्ञा की गई है, समयसार लिखने की प्रतिज्ञा की गई है । अत: यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि समय क्या है ? इसलिए अब आचार्यदेव सर्वप्रथम समय का स्वरूप ही स्पष्ट करते हैं । जीवो चरित्तदंसणणाणट्ठिदो तं हि ससमयं जाण । पोग्गलकम्मपदेसट्ठिदं च तं जाण परसमयं ॥ २ ॥ ( हरिगीत ) सद्ज्ञानदर्शनचरित परिणत जीव ही हैं स्वसमय । जो कर्म पुद्गल के प्रदेशों में रहें वे परसमय ॥ २ ॥ जो जीव दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र में स्थित है; उसे स्वसमय जानो और जो जीव पुद्गलकर्म के प्रदेशों में स्थित है; उसे परसमय जानो। स्वभाव में स्थित जीव स्वसमय है और परभाव में स्थित जीव परसमय है । स्वसमय और परसमय दोनों अवस्थाओं में व्यापक प्रत्यगात्मा समय है । मूल गाथा में तो स्वसमय और परसमय को ही परिभाषित किया गया है, पर आचार्य अमृतचन्द्र और जयसेन पहले समय का स्वरूप स्पष्ट करते हैं, उसके बाद स्वसमय और परसमय को समझाते हैं । 'समय' शब्द का भाव आत्मख्याति में इसप्रकार स्पष्ट किया गया है - 44 " समय शब्द 'सम' उपसर्गपूर्वक 'अय' धातु से बना है । 'अय' का अर्थ गमन भी होता है और ज्ञान भी होता है । 'सम्' का अर्थ 'एकसाथ' होता है । इसप्रकार जिस वस्तु में एक ही काल में जानना और परिणमन करना ये दोनों क्रियायें पाई जावें, वह ही समय है । -
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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