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________________ समयसारअनुशीलन ४८८ जीव के स्थान नहिं गुणथान के स्थान ना। क्योंकि ये सब भाव पुद्गल द्रव्य के परिणाम हैं।५५।। वर्णादि को व्यवहार से ही कहा जाता जीव के । परमार्थ से ये भाव भी होते नहीं हैं जीव के ॥५६।। दूध-पानी की तरह सम्बन्ध इनका जानना। उपयोगमय इस जीव के परमार्थ से ये हैं नहीं॥५७|| पथिक लुटते देखकर पथ लुट रहा जग-जन कहें। पर पथ तो लुटता है नहीं बस पथिक ही लुटते रहें।५८॥ उस ही तरह रंग देखकर जड़कर्म अर नोकर्म का। जिनवर कहें व्यवहार से यह वर्ण है इस जीव का।।५९।। इस ही तरह रस गंध तन संस्थान आदिक जीव के। व्यवहार से हैं - कहें वे जो जानते परमार्थ को॥६०।। जो जीव हैं संसार में वर्णादि उनके ही कहें। जो मुक्त हैं संसार से वर्णादि उनके हैं नहीं॥६१।। वर्णादिमय ही जीव हैं तुम यदी मानो इसतरह। तब जीव और अजीव में अन्तर करोगे किसतरह?॥६२॥ मानो उन्हें वर्णादिमय जो जीव हैं संसार में। तब जीव संसारी सभी वर्णादिमय हो जायेंगे॥६३॥ यदि लक्षणों की एकता से जीव हों पुद्गल सभी। बस इसतरह तो सिद्ध होंगे सिद्ध भी पुद्गलमयी॥६४॥ एकेन्द्रियादिक प्रकृति हैं जो नाम नामक कर्म की। पर्याप्तकेतर आदि एवं सूक्ष्म-वादर आदि सब ॥६५।। इनकी अपेक्षा कहे जाते जीव के स्थान जो। कैसे कहें - 'वे जीव हैं' – जब प्रकृतियाँ पुद्गलमयी॥६६।। पर्याप्तकेतर आदि एवं सूक्ष्म वादर आदि सब । जड़ देह की है जीव संज्ञा सूत्र में व्यवहार से ॥६७।। मोहन-करम के उदय से गुणथान जो जिनवर कहे। वे जीव कैसे हो सकें जो नित अचेतन ही कहें।।६८॥
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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