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________________ 259 ( मालिनी ) अयि कथमपि मृत्वा तत्त्वकौतूहली सन् अनुभव भवमूर्तेः पार्श्ववर्ती मुहूर्तम् । पृथगथ विलसंतं स्वं समालोक्य येन कलश २३ त्यजसि झगिति मूर्त्या साकमेकत्वमोहम् ॥ २३ ॥ ( हरिगीत ) निजतत्व का कौतूहली अर पड़ौसी बन देह का । हे आत्मन् ! जैसे बने अनुभव करो निजतत्त्व का ॥ जब भिन्न पर से सुशोभित लख स्वयं को तव शीघ्र ही । तुम छोड़ दोगे देह से एकत्व के इस मोह को ॥ २३ ॥ अरे भाई ! किसी भी प्रकार महाकष्ट से अथवा मरकर भी निजात्मतत्त्व का कौतूहली होकर इन शरीरादि मूर्त द्रव्यों का एक मुहूर्त को पड़ोसी बनकर आत्मा का अनुभव कर; जिससे तू अपने आत्मा के विलास को सर्व परद्रव्यों से भिन्न देखकर, इन शरीरादि मूर्तिक पुद्गलद्रव्यों के साथ एकत्व के मोह को शीघ्र ही छोड़ देगा । आचार्यदेव करुणा से अत्यन्त विगलित हो मर्मस्पर्शी कोमल शब्दों में समझा रहे हैं कि अरे भाई ! मरणतुल्य कष्ट हो तो भी एकबार पर से भिन्न अपने आत्मा को समझने का उग्र पुरुषार्थ करो । आत्मा के समझने में न तो कोई कष्ट ही होनेवाला है और न मृत्यु होने की बात ही है; तथापि आचार्यदेव ऐसा कहकर आत्मज्ञान की महिमा बता रहे हैं, उपयोगिता बता रहे हैं; यह कह रहे हैं कि मृत्यु की कीमत पर भी यदि आत्मज्ञान प्राप्त होता हो तो भी करना; क्योंकि उसके बिना दुख दूर होनेवाला नहीं है और आत्मज्ञान होने पर कोई कष्ट रहनेवाला नहीं है । अत: जैसे भी बने आत्मा का अनुभव करने का उग्र पुरुषार्थ करना चाहिए । जगत के पदार्थों को जानने का कौतूहल तो लोक में सर्वत्र पाया जाता है, पर उनके जानने से आत्मा को कोई लाभ नहीं होता,
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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