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________________ समयसार अनुशीलन इन तीनों उक्त व्याख्या में गृहस्थ, तपोधन, परमसमाधि में स्थित की अपेक्षा बताकर वे क्या कहना चाहते हैं ? इस बात को गहराई से समझना चाहिए; क्योंकि गृहस्थों में तो ऐसा अज्ञान संभव है कि वे स्त्री- पुत्रादि, धन-धान्यादि परद्रव्यों में आत्मविकल्प करें। उन्हें अपना माने; पर तपोधन तो ज्ञानी धर्मात्मा होते हैं; वे इसप्रकार की मान्यता छात्रादि में कैसे कर सकते हैं ? यदि यह भी मान लें कि कोई वेशधारी ऐसा करे, उसकी अपेक्षा यह बात है; तो भी जो निर्विकल्पसमाधि में स्थित हैं वे तो ऐसा मान ही नहीं सकते। वे तो किसी परद्रव्य को न तो अपना मान ही सकते हैं और न उन्हें इसप्रकार के विकल्पों की उत्पत्ति संभव है; क्योंकि वे तो निर्विकल्पसमाधि में रत हैं । - - - - अतः यहाँ ऐसा समझना चाहिए कि गृहस्थ की अपेक्षावाला जो उदाहरण है, वह तो ज्ञानी अज्ञानी सभी पर घटित होगा और शुभोपयोगी तपोधन एवं निर्विकल्पसमाधि में स्थित तपोधनवाला उदाहरण मात्र ज्ञानी पर ही घटित होगा। तात्पर्य यह है कि जो गृहस्थ शरीरादि परद्रव्यों में आत्मविकल्प करते हैं, वे अज्ञानी हैं और जो गृहस्थ एवं शुभोपयोग में प्रवर्तमान तपोधन व निर्विकल्पसमाधिरत तपोधन शरीरादि परद्रव्यों में आत्मविकल्प न करके अपने आत्मा को ही निज जानते- मानते हैं; वे ज्ञानी धर्मात्मा है, प्रतिबुद्ध हैं । अब आचार्य अमृतचन्द्र कलश के माध्यम से प्रेरणा देते हैं कि हे जगतजनो ! पर से एकत्व का मोह अब तो छोड़ो; क्योंकि यह आत्मा, अनात्मा के साथ कभी भी एकत्व को प्राप्त नहीं होता । कलश मूलतः इसप्रकार है 250
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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