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________________ 251 कलश २२ ( मालिनी ) त्यजतु जगदिदानीं मोहमाजन्मलीनं रसयतु रसिकानां रोचनं ज्ञानमुद्यत्। इह कथमपि नात्मानात्मना साकमेकः किल कलयति काले क्वापि तदात्म्यवृत्तिम् ।। २२ ॥ ( हरिगीत ) आजन्म के इस मोह को हे जगतजन तुम छोड़ दो। रसिकजन को जो रुचे उस ज्ञान के रस को चखो॥ तादात्म्य पर के साथ जिनका कभी भी होता नहीं। अर स्वयं का ही स्वयं से अन्यत्व भी होता नहीं॥२२॥ हे जगत के जीवो ! अनादि से लेकर आजतक अनुभव किये गये मोह को कम से कम अब तो छोड़ो और रसिकजनों को रुचिकर उदित ज्ञान का आस्वादन करो; क्योंकि आत्मा इस लोक में किसी भी स्थिति में अनात्मा के साथ तादात्म्य को धारण नहीं करता, पर के साथ एकमेक नहीं होता। 'रसिकजन' शब्द का अर्थ कलशटीकाकार ने शुद्धस्वरूप का अनुभव करनेवाले सम्यग्दृष्टि पुरुष किया है। सम्यग्दृष्टि धर्मात्मा जीवों की रुचि तो एकमात्र ज्ञानानन्दस्वभावी निज भगवान आत्मा में होती है, वे तो निरन्तर उसी में रहना चाहते हैं, उसी में रमना चाहते हैं; क्योंकि उनका अपनापन तो अपने त्रिकालीध्रुव ज्ञायकभाव में ही स्थापित हो गया है। यहाँ आचार्यदेव जगत के जीवों को सम्बोधित करते हुए समझा रहे हैं कि तुम भी सम्यग्दृष्टि ज्ञानी धर्मात्माओं के समान निज ज्ञानानन्दस्वभाव का ही आस्वादन करो, उसमें ही अपनापन स्थापित करो, उसमें ही जम जावों, रम जावों; क्योंकि परके साथ तुम्हारा कोई भी सम्बन्ध नहीं है। ये शरीरादि परपदार्थ न तो आजतक तुम्हारे हुए हैं और न कभी होंगे ही।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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