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________________ 249 गाथा २०२२ आचार्य जयसेन की टीका में और सब बातें तो आत्मख्याति के समान ही हैं, पर एक बात विशेष है। वह यह कि उन्होंने सचित्त, अचित्त और मिश्र परद्रव्यों को गृहस्थ की अपेक्षा, तपोधन मुनिराजों की अपेक्षा एवं निर्विकल्प समाधिस्थ पुरुष की अपेक्षा पृथक्-पृथक् घटित करके समझाया है। उनके मूल कथन का भाव इसप्रकार है - "उनमें गृहस्थ की अपेक्षा छात्रादि स्त्री आदि सचित्त, स्वर्णादि अचित्त एवं वस्त्राभूषण सहित स्त्री आदि मिश्र हैं । तपोधन की अपेक्षा छात्रादि सचित्त; पीछी-कमण्डलु पुस्तक आदि अचित्त और उपकरण सहित छात्रादि मिश्र हैं अथवा रागादि भावकर्म सचित्त, ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म अचित्त एवं द्रव्यकर्म और भाव - दोनों मिलाकर मिश्र हैं। विषय-कषाय रहित निर्विकल्प समाधि में स्थित पुरुष की अपेक्षा सिद्धपरमेष्ठी का स्वरूप सचित्त, पुद्गल आदि पाँच द्रव्य अचित्त और गुणस्थान, जीवसमास, मार्गणादिरूप परिणत संसारीजीव का स्वरूप मिश्र है।" ___ यहाँ प्रकरण यह चल रहा है कि अप्रतिबुद्ध (अज्ञानी) की पहिचान का चिन्ह क्या है ? हम कैसे जाने कि यह अप्रतिबुद्ध है ? इस प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि जो व्यक्ति सचित्त, अचित्त और मिश्र परद्रव्यों में अपनेपन का विकल्प करता है, वह अज्ञानी है और जो भूतार्थ को जानते हुए परपदार्थों में इसप्रकार के आत्मविकल्प नहीं करता है, वह ज्ञानी है, प्रतिबुद्ध है। उक्त गाथा की टीका में सचित्त, अचित्त और मिश्र परद्रव्यों की व्याख्या में आचार्य अमृतचन्द्र तो एकदम मौन है; क्योंकि उनकी दृष्टि में यह अत्यन्त सरल बात है, जिसे सभी अच्छी तरह समझते हैं । अतः उन्होंने इनकी व्याख्या में कुछ लिखने की आवश्यकता ही नहीं समझी, पर आचार्य जयसेन ने उक्त व्याख्या की है।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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