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________________ समयसार अनुशीलन 248 इसप्रकार जैसे किसी को अग्नि में ही सत्यार्थ अग्नि का विकल्प हो, तो वह उसके प्रतिबुद्ध होने का लक्षण है। ___ इसीप्रकार मैं ये परद्रव्य नहीं हूँ और ये परद्रव्य मुझस्वरूप नहीं हैं ; मैं तो मैं ही हूँ और परद्रव्य हैं, वे परद्रव्य ही हैं ; मेरे ये परद्रव्य नहीं हैं और इन परद्रव्यों का मैं नहीं हूँ; मैं मेरा हूँ और परद्रव्य के परद्रव्य हैं; ये परद्रव्य पहले मेरे नहीं थे और इन परद्रव्यों का मैं पहले नहीं था; मेरा ही मैं पहले था और परद्रव्यों के परद्रव्य ही पहले थे। ये परद्रव्य भविष्य में मेरे नहीं होंगे और न मैं भविष्य में इनका होऊँगा; मैं भविष्य में अपना ही रहूँगा और ये परद्रव्य भविष्य में इनके ही रहेंगे। इसप्रकार जो व्यक्ति स्वद्रव्य में ही आत्मविकल्प करते हैं, स्वद्रव्य को निज जानते-मानते हैं, वे ही प्रतिबुद्ध हैं, ज्ञानी हैं। ज्ञानी का यही लक्षण है और इन्हीं लक्षणों से ज्ञानी पहिचाना जाता है।" उक्त कथन में अनेकप्रकार से एक ही बात कही गई है कि अपनी ज्ञान पर्याय में ज्ञात होने वाले परद्रव्यों में एकत्व-ममत्व करना ही अज्ञान है और परद्रव्यों से एकत्व-ममत्व तोड़कर अपने आत्मा में एकत्व-ममत्व करना सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन है। अतः इस एकत्वममत्व के आधार पर ही ज्ञानी-अज्ञानी की पहिचान होती है। यहाँ एकत्व-ममत्व को अग्नि व ईंधन के उदाहरण से तीनों कालों की अपेक्षा घटित करके समझाया गया है। गाथा में व टीका में उसी को सर्वांग घटित करके स्पष्ट किया है। अतः कुछ पिष्टपेषण-सा लगता है, पर यह तो मूल बात है और अपने अन्तर में गहराई से उतारने की बात है। अत: इसमें पिष्टपेषण दोष नहीं, गुण माना जाता है; क्योंकि आखिर हमें पर से एकत्व-ममत्व तोड़ना है और अपने में एकत्व-ममत्व जोड़ना है। इसलिए इसप्रकार की भावना अनवरतरूप से भाना ही होगी।
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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