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________________ समयसार अनुशीलन 426 है; क्योंकि ये सभी पुद्गलद्रव्य के परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न हैं। (9) प्रीतिरूप राग भी जीव नहीं है, क्योंकि वह पुद्गलद्रव्य का परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न है। (10) अप्रीतिरूप द्वेष भी जीव नहीं है; क्योंकि वह पुद्गलद्रव्य का परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न है। (11) यथार्थतत्त्व की अप्रतिपत्तिरूप (मिथ्यात्वरूप) मोह भी जीव नहीं है; क्योंकि वह पुद्गलद्रव्य का परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न है। (12) मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग जिसके लक्षण हैं - ऐसे प्रत्यय (आस्रव) भी जीव नहीं हैं ; क्योंकि ये पुद्गलद्रव्य के परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न हैं। (13) ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तराय - ये आठों कर्म जीव नहीं हैं; क्योंकि ये पुद्गलद्रव्य के परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न हैं। (14) छह पर्याप्तियों और तीन शरीरों के योग्य पुद्गलस्कंधरूप नोकर्म भी जीव नहीं है; क्योंकि वह पुद्गलद्रव्य का परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न है। (15) कर्म के रस की शक्तियों अर्थात् अविभागप्रतिच्छेदों का समूहरूप वर्ग भी जीव नहीं है। क्योंकि वह पुद्गलद्रव्य का परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न है। (16) वर्गों के समूहरूप वर्गणा भी जीव नहीं है; क्योंकि वर्गणा भी पुद्गलद्रव्य का परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न है। (17) मन्द-तीव्र रसवाले कर्मसमूह के विशिष्ट न्यास (जमाव) रूप अर्थात् वर्गणा के समूह रूप स्पर्धक भी जीव नहीं हैं; क्योंकि वे भी पुद्गलद्रव्य के परिणाममय होने से अपनी अनुभूति से भिन्न हैं। (18) स्व-पर के एकत्व के अध्यास होने पर, विशुद्ध चैतन्यपरिणाम से भिन्नरूप है लक्षण जिनका, ऐसे अध्यात्मस्थान भी
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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