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पृष्ठभूमि
इस ग्रन्थाधिराज का मूल प्रतिपाद्य नवतत्त्वों के निरूपण के माध्यम से नवतत्त्वों में छुपी हुई परमशुद्धनिश्चयनय की विषयभूत वह आत्मज्योति है, जिसके आश्रय से निश्चय सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र की प्राप्ति होती है ।
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समयसार के इस अनुशीलन में समयसार की मूल गाथाओं के साथ-साथ आचार्य अमृतचन्द्र की आत्मख्याति नामक संस्कृत टीका को मुख्य आधार बनाया जायगा । आचार्य जयसेन की तात्पर्यवृत्ति नामक संस्कृत टीका, पाण्डे राजमलजी की कलश टीका, पण्डित बनारसीदासजी के नाटक समयसार एवं पण्डित जयचन्दजी छाबड़ा की भाषा वचनिका का भी आवश्यकतानुसार यथास्थान उपयोग किया जायेगा । आध्यात्मिक सत्पुरुष श्री कानजीस्वामी के प्रवचनों से भी लाभ उठाया जायेगा। इनके अतिरिक्त तत्संबंधित अन्य उपलब्ध साहित्य का उपयोग भी निःसंकोच किया जायेगा ।
इस अनुशीलन का एकमात्र उद्देश्य समयसार की मूल विषयवस्तु को अत्यन्त सरल भाषा व सुबोध शैली में जन-जन के समक्ष प्रस्तुत करना है । साथ में अपने उपयोग का सदुपयोग करना भी एक प्रयोजन है । मैं नहीं चाहता कि जीवन की इस सान्ध्य बेला में उपयोग यहाँवहाँ भटकता रहे । उसे त्रिकाली ध्रुव आत्मा का एक ऐसा सम्बल मिले कि उसे अन्यत्र भटकने का अवसर ही न रहे। बस, निरन्तर एक ही धुन रहे; वह भी भगवान आत्मा के चिन्तन, मनन, अध्ययन, पठनपाठन, लेखन और अनुभवन की ही; क्योंकि मेरी दृढ़ आस्था है कि एकमात्र यही मार्ग है, सुखी होने का यही एकमात्र उपाय है ।
समयसार जैनियों की गीता है। इसमें ही उस मूल वस्तु का विवेचन है, जो आत्मसाधकों का एकमात्र आधार है । समयसार के मूल प्रतिपाद्य