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समयसार अनुशीलन
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में डुबकी लगावो और अतीन्द्रिय-आनन्द को प्राप्त कर अनन्तसुखी हो जावो।
( वसन्ततिलका ) मन्जन्तु निर्भरममी सममेव लोका।
आलोकमुच्छलति शान्तरसे समस्ताः ।। आप्लाव्य विभ्रमतिरस्करणी भरेण। प्रोन्मग्न एष भगवानवबोधसिन्धुः ।।३२ ।।
( हरिगीत ) सुख शान्तरस से लबालब यह ज्ञानसागर आतमा। विभरम की चादर हटा सर्वांग परगट आतमा। हे भव्यजन ! इस लोक के सब एक साथ नहाइये।
अर इसे ही अपनाइये इसमें मगन हो जाइये ॥३२॥ यह ज्ञानसमुद्र भगवान आत्मा विभ्रमरूपी आड़ी चादर को समूलतया डुबोकर, दूरकर, हटाकर स्वयं सर्वांग प्रगट हुआ है, पूर्णतया प्रगट हो गया है। अतः अब हे लोक के समस्त लोगों! लोकपर्यन्त उछलते हुए उसके शान्तरस में सब एकसाथ ही मग्न हो जावो।
उक्त छन्द का भाव स्पष्ट करते हुए भावार्थ में पंडित जयचन्दजी छाबड़ा लिखते हैं -
"जैसे समुद्र के आड़े कुछ आ जावे तो जल दिखाई नहीं देता और जब वह आड़ दूर हो जाती है, तब जल प्रगट होता है । वह प्रगट होनेपर लोगों को प्रेरणा योग्य होता है कि 'इस जल में सभी लोग स्नान करो।' इसीप्रकार यह आत्मा विभ्रम से आच्छादित था, तब उसका स्वरूप दिखाई नहीं देता था; अब विभ्रम दूर हो जाने से यथास्वरूप (ज्यों का त्यों) प्रगट हो गया। इसलिए अब उसके वीतराग-विज्ञानरूप शान्तरस में एक ही साथ सर्व लोक मग्न होओ - इसप्रकार आचार्यदेव ने प्रेरणा की है।