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समयसार अनुशीलन
अज्ञानी की दुर्दशा का चित्र खींचते हुए टीका में कहा गया है कि यह लोक संसाररूपी चक्की के पाटों के बीच अनाज के दानों के समान पिस रहा है, मोहरूपी भूत इसे पशुओं की भाँति जोत रहा है, तृष्णारूपी रोग से यह जल रहा है, मृगतृष्णा में फँसकर मृग की भाँति भटक रहा है। आश्चर्य तो यह है कि पंचेन्द्रिय विषयों में उलझा हुआ, फँसा हुआ यह अज्ञानी लोक परस्पर आचार्यत्व भी करता है। लोग विषय-कषाय की चतुराई एक-दूसरे को बताते हैं, सिखाते हैं। पैसा कैसे कमाना, उसे कैसे भोगना - आदि बातों को जगत को बताते हैं, उन्हीं कार्यों के करने की प्रेरणा भी देते हैं। __ बाप बेटों को समझाता है कि पैसा कैसे कमाना, कैसे जोड़ना और बेटे भी बाप को समझाते हैं कि अब जमाना बदल गया है, पुरानी ईमान धर्म की बातें अब नहीं चल सकतीं। अब तो खाओ-पिओ और मौज उड़ाओ – इसी में सार है।
इसप्रकार सभी अज्ञानी एक-दूसरे को भोग भोगने की ही प्रेरणा देते हैं । इसीकारण काम, भोग और बंध की कथा जगत में सर्वत्र सुलभ है; किन्तु पर से विभक्त एवं अपने में अविभक्त भगवान आत्मा की कथा अत्यन्त दुर्लभ है; क्योंकि उसको चर्चा करनेवाले इस जगत में अत्यन्त अल्प हैं, कहीं-कहीं ही जुगनू के समान चमकते दिखाई देते हैं।
सागारधर्मामृत में लिखा है - "खद्योतवत् सुदेष्टारो हा द्योतंते क्वचित्-क्वचित् । ।
सदुपदेश देनेवाले इस कलियुग में जुगनू के समान कहीं-कहीं ही चमकते हैं – इस बात का अत्यन्त खेद है।"
यद्यपि भेदज्ञानज्योति से प्रकाशमान यह भगवान आत्मा अन्तरंग में स्पष्टरूप से प्रकाशमान है; तथापि अनादिकालीन अज्ञान से कषायचक्र १. पण्डित आशाधर : सागारधर्मामृत, अध्याय १, श्लोक ७