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गाथा ४
के साथ एकरूप किये जाने से तिरोहित हो रहा है, अज्ञानी जगत को दिखाई नहीं दे रहा है। यही कारण है कि आचार्यदेव भेदज्ञान की है प्रधानता जिसमें - ऐसा यह एकत्व-विभक्त भगवान आत्मा के स्वरूप का प्रकाशक शास्त्र समयसार लिख रहे हैं। ___ आगामी गाथा में वे इस बात को प्रतिज्ञावाक्य के रूप में भी प्रस्तुत करने जा रहे हैं। अत: हे भव्यजीवो ! तुम इस विरल महाशास्त्र का गहराई से अध्ययन करना। अत्यन्त विरल यह भगवान आत्मा का प्रतिपादन हम सबके महाभाग्य से हमें प्राप्त हो गया है; अतः पूरे आदर-सम्मान के साथ इसका पूरा-पूरा लाभ लेना चाहिए।
बातें तो सब शास्त्रों में लिखी रहती हैं, पर उनका मर्म ज्ञानियों के हृदय में होता है। अत: यहाँ ज्ञानियों के सत्समागम की विशेष प्रेरणा दी गई है, उनकी सेवा करने की भी आज्ञा दी गई है।
देखो, यहाँ आचार्यदेव ने जगत के जीवों का कितना वास्तविक चित्रण किया है कि वे एक तो स्वयं कुछ जानते नहीं हैं; दूसरे आत्मज्ञानी सत्पुरुषों की बात मानते नहीं हैं । ज्ञानी धर्मात्माओं की बात मानना तो बहुत दूर, उनकी बात ध्यान से सुनते भी नहीं हैं; अपितु उनका विरोध करते हैं । आचार्यदेव ने 'आत्मज्ञानीनामनुपासनात्' शब्द का प्रयोग किया है - जिसका सीधा-सादा अर्थ होता है कि आत्मज्ञपुरुषों की उपासना नहीं करने से एकत्व-विभक्त भगवान आत्मा की प्राप्ति नहीं होती। __ आत्मोपलब्धि के पूर्व देशनालब्धि आवश्यक है। देशना की प्राप्ति आत्मज्ञानी धर्मात्माओं के सत्समागम से ही संभव है। यहाँ उपासना का अर्थ कोई पूजा-पाठ करना ही नहीं है, अपितु उनसे प्रीतिपूर्वक आत्मा की बात सुनना है, समझना है; क्योंकि यहाँ साफ-साफ लिखा है कि ज्ञानी धर्मात्माओं की उपासना नहीं करने से आत्मा की बात न कभी सुनी है, न आत्मा का परिचय प्राप्त किया है। इसका तो यही