________________
समयसार अनुशीलन
22 प्रवचनसार की ८०वीं गाथा में कहा गया है कि 'जो अरहंत भगवान को द्रव्यरूप से, गुणरूप से एवं पर्यायरूप से जानते हैं; वे अपने आत्मा को जानते हैं और उससे उनका मोह नाश को प्राप्त होता है।' यहाँ भी यही बात कही जा रही है कि 'सिद्धों के स्वरूप का चिन्तवन कर, उन्हीं के समान अपने रूप को ध्याकर, संसारी जन उन्हीं के समान हो जाते हैं।'
जो सिद्धपद हमारे लिए साध्य है, वह सिद्धपद जिन्होंने प्राप्त कर लिया है; वे सिद्ध भगवान हमारे आदर्श हैं, क्योंकि हमें उन जैसा ही बनना है। ___ यहाँ उन्हीं सिद्ध भगवान को द्रव्य व भाव स्तुति के माध्यम से स्वयं के व पाठकों के आत्मा में स्थापित करके इस समयसार ग्रन्थ को लिखने की प्रतिज्ञा की गई है।
द्रव्यस्तुति और भावस्तुति का स्वरूप स्पष्ट करते हुए स्वामीजी कहते हैं -
"मन, वाणी, देह तथा शुभाशुभ वृत्ति से मैं भिन्न हूँ; इसप्रकार शुद्धात्मा की ओर उन्मुख होकर तथा रागवृत्ति से हटकर अंतरंग में स्थिर होना सो भावस्तुति है। शेष शुभभावरूप स्तुति करना सो द्रव्यस्तुति है। _ 'मैं पूर्ण ज्ञानघन एवं स्वभाव से निर्मल हूँ' – ऐसे भावसहित रागादि को विस्मरण करके रागरहित भगवान आत्मा को अपने लक्ष में लेकर अंतरंग में स्थिर होना सो अंतरंग एकाग्रता अर्थात् भाववंदना है। शुभलक्षी भक्तिभाव द्रव्यस्तुति अर्थात् द्रव्यवंदना है?"
आचार्य जयसेन ने तात्पर्यवृत्ति टीका में 'वंदित्तु' पद की व्याख्या इसप्रकार की है -
१. समयसार प्रवचन : प्रथम भाग, पृष्ठ २९ २. वही,
पृष्ठ ३३