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________________ समयसार अनुशीलन 416 गया है। तात्पर्य यह है कि जाननेवाली वर्तमान पर्याय तो चित्सामान्य से बाहर ही रही और इसी वर्तमान व्यक्त पर्याय में अव्यक्त ज्ञायक वस्तु को जान - ऐसा आचार्यदेव कहते हैं। जिसप्रकार पानी की तरंग पानी में समा जाती है; उसीप्रकार व्यक्त होनेवाली पर्याय द्रव्यरूप ही हो जाती है। इसीतरह जब निर्मलपर्याय प्रगट होती है। तब क्षयोपशम, क्षायिक या उपशमभावरूप होती है; परन्तु जब अन्दर द्रव्य में ही व्यय होकर समा जाती है, तब वह पारिणामिकभावरूप ही हो जाती है, अर्थात् उदय, उपशम, क्षय या क्षयोपशमभावरूप नहीं रहती।" प्रश्न -स्वामीजी ने स्पष्टीकरण तो बहुत अच्छा किया है, परन्तु आचार्य अमृतचन्द्र ने तो लिखा है कि चित्सामान्य में चैतन्य की समस्त व्यक्तियाँ निमग्न होने से जीव अव्यक्त है और स्वामीजी ने भूत-भविष्य की पर्यायों को तो निमग्न माना, परन्तु वर्तमान व्यक्त पर्याय को अलग रख लिया - ऐसा क्यों किया? उत्तर - अव्यक्त विशेषण में व्यक्त पर्याय को कैसे शामिल किया जा सकता है? भूत व भविष्य की पर्यायें भी पर्यायरूप में शामिल नहीं की गई हैं, अपितु पारिणामिकभाव के रूप में शामिल की हैं; क्योंकि दृष्टि के विषयभूत त्रिकाली ध्रुव आत्मा में क्षायिक, क्षायोपशमिक, औपशमिक और औदयिक भावों को तो शामिल किया ही नहीं जा सकता। आत्मा को जाननेवाली वर्तमान पर्याय क्षायोपशमिकभावरूप है। अत: उसे दृष्टि के विषयभूत भगवान आत्मा में शामिल करने का प्रश्न ही उपस्थित नहीं होता। प्रश्न - तीन कालों में भूत और भविष्य की पर्यायें तो पारिणामिकभावरूप से शामिल हो गई और वर्तमान पर्याय अलग रह गई तो फिर आत्मा त्रिकाली कैसे रहा? 1. प्रवचनरत्नाकर (हिन्दी) भाग-२, पृष्ठ 234-35
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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