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________________ समयसार अनुशीलन की दृष्टि में पर्यायार्थिक ही है, इसलिए व्यवहारनय ही है ऐसा आशय समझना चाहिए । 66 यहाँ यह भी जानना चाहिए कि जिनमत का कथन स्याद्वादरूप है, इसलिए अशुद्धनय को सर्वथा असत्यार्थ न माना जाए; क्योंकि स्याद्वाद प्रमाण से शुद्धता और अशुद्धता दोनों वस्तु के धर्म हैं और वस्तुधर्म वस्तु का सत्व है; अन्तर मात्र इतना ही है कि अशुद्धता परद्रव्य के संयोग से होती है। अशुद्धनय को यहाँ हेय कहा है, क्योंकि अशुद्धनय का विषय संसार है और संसार में आत्मा क्लेश भोगता है; जब स्वयं परद्रव्य से भिन्न होता है, तब संसार छूटता है और क्लेश दूर होता है। इसप्रकार दुःख मिटाने के लिये शुद्धनय का उपदेश प्रधान है। के अशुद्धनय को असत्यार्थ कहने से यह न समझना चाहिए कि आकाश फूल की भाँति वह वस्तुधर्म सर्वथा ही नहीं है, ऐसा सर्वथा एकान्त समझने से मिथ्यात्व होता है; इसलिए स्याद्वाद की शरण लेकर शुद्धनय का आलम्बन लेना चाहिए । स्वरूप की प्राप्ति होने के बाद शुद्धनय का भी आलम्बन नहीं रहता । जो वस्तुस्वरूप है, वह है यह प्रमाणदृष्टि है। इसका फल वीतरागता है । इसप्रकार निश्चय करना योग्य है । — यहाँ, (ज्ञायकभाव) प्रमत्त - अप्रमत्त नहीं है - ऐसा कहा है । वह गुणस्थानों की परिपाटी में छट्ठे गुणस्थान तक प्रमत्त और सातवें से लेकर अप्रमत्त कहलाता है । किन्तु यह सब गुणस्थान अशुद्धनय की कथनी में हैं; शुद्धनय से तो आत्मा ज्ञायक ही है । " इस गाथा में दृष्टि के विषय को स्पष्ट किया जा रहा है । तात्पर्य यह है कि जिस आत्मा में अपनापन स्थापित करने का नाम सम्यग्दर्शन है, जिस आत्मा का ध्यान करने से केवलज्ञान की प्राप्ति होती है, और जिस आत्मा के जानने का नाम परमशुद्धनिश्चयनय है तथा जो आत्मा परमपारिणामिकभावरूप है; उस भगवान आत्मा का स्वरूप ही यहाँ
SR No.009471
Book TitleSamaysara Anushilan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHukamchand Bharilla
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages502
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size36 MB
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